उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘आर्मी हैडक्वार्टर में क्लर्क था। मेरे मुख से ब्रिगेडियर जनरल के सामने निकल गया कि वे शराब पिये हुए हैं, इस कारण ठीक और गलत में तमीज नहीं कर सकते। इस आरोप को सुन ब्रिगेडियर साहब वहीं बैठ गये। और ‘डिसमिसल’ की आज्ञा लिख दी।’
‘‘मैंने नारायणप्रसाद के लिये बहुत प्रयत्न किया। उसके लिये पत्र लिखे, प्रार्थनाएँ लिखीं और एक समय तो नोटिस भी दे दिया, परन्तु कुछ प्रभाव नहीं हुआ। सर्विस रूल्ज के अनुसार भी कुछ नहीं हो सकता था।
‘‘नारायणप्रसाद इस काल में बीमार हुआ और चल बसा। उसकी पत्नी ने निर्धनता को आँखों के सामने नृत्य करते देख आत्म-हत्या कर ली। नारायणप्रसाद की लड़की सरोज मुझको मिल गयी। मैंने उसको घर में रखा। उस समय वह चार वर्ष की थी। शान्तिस्वरूप सात वर्ष का था। मैंने दोनों के पढ़ने का प्रबंध कर दिया। दोनों का चुपचाप विवाह-संस्कार करा दिया। सरोज तो समझ नहीं सकी, परन्तु शान्तिस्वरूप समझता था। मैंने सरोज को स्कूल में बिठा दिया और इस विचार के बन जाने पर कि वह मेरी पतोहू होगी, क्योंकि उसका विवाह मेरे लड़के से हो चुका है, मैंने उसकी अच्छी शिक्षा दी। जब शान्तिस्वरूप शरारतें करने लगा तो मैंने इसको बोर्डिंग हाउस में दाखिल करा दिया। इस पर भी वह घर पर आता था।
‘‘सरोज तो इन्टरमीडिएट से अधिक नहीं पढ़ सकी। शान्तिस्वरूप ने बी० ए० पास कर लिया और ठेकेदारी करने लगा। उस समय से ये पति-पत्नी के रूप में रहते आये हैं।’’
‘‘सुनाओ सरोज! तुमको स्मरण है अपने विवाह की बात?’’
‘‘स्वप्नवत् स्मरण है। ज्यूँ ज्यूँ मैं बड़ी होती गयी, मुझको यह ज्ञान हुआ कि मैं इस घर की बहू हूँ। जब मुझको ज्ञान हुआ कि पति-पत्नी में यौन-संबंध भी होता है तो माताजी ने मुझको कुछ बातें बतानी आरम्भ कर दी थीं। जब मैं कॉलेज में भरती हुई तो मुझको इतना ज्ञान हो चुका था कि हमने अपनी पढ़ाई के समाप्त होने तक संयम का जीवन व्यतीत करना है। इस ज्ञान से संतोष होता था, परन्तु संयम तभी सम्भव हुआ था जब पिताजी की नीति से ये बोर्डिंग हाउस में भरती करा दिय गये थे और माताजी मुझको निरन्तर सीख देती रहती थीं।’’
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