उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
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शिवदत्त के मकान से निकल रेलवे स्टेशन की ओर चलते हुए सौभाग्यवती ने कहा, ‘‘मेरा यह दृढ़ मत है कि अब इन्द्र का गौना हो जाना चाहिए।’’
‘‘इससे क्या होगा?’’ इन्द्रनारायण ने पूछ लिया।
‘‘होना कुछ नहीं। तुम्हारे नाना जैसे व्यक्तियों को तुमको और रजनी को बदनाम करने का अवसर नहीं मिलेगा।’’
‘‘माँ! डूमों के कहने से गाय मरा नहीं करती।’’
रामाधार हँस पड़ा। हँसकर बोला, ‘‘इन्द्र! तुम अपने नाना को डूम की उपाधि दे रहे हो। मैं इसको पसन्द नहीं करता।
‘‘देखो, काका ने किसी भी उद्देश्य से यह बात कही हो, मैं और तुम्हारी माता भी इसी प्रकार विचार कर रहे थे। मुझको तुम्हारे चरित्र पर किंचित् मात्र भी संदेह नहीं है। रजनी भी मुझको राधा के समान प्यारी लड़की प्रतीत हुई है। परन्तु बेटा! संसार में न केवल नेक बनना चाहिये, प्रत्युत् नेक-नाम भी तो होना चाहिये।
‘‘समाज में रहते हुए उसमें प्रतिष्ठित बनकर रहना अत्यावश्यक है। फिर हम कोई धर्म-विरुद्ध बात तो कर नहीं रहे। तुम्हारी पत्नी अब चौदह वर्ष की हो गयी है और अब उसको अपने घर में आकर अपने घर का काम-काज सँभाल लेना चाहिये।’’
इन्द्र यद्यपि यह नहीं चाहता था कि उसकी पढ़ाई समाप्त होने से पूर्व एक नया झंझट उत्पन्न हो जाये, परन्तु वह और अधिक समझाना, व्यर्थ में अपने चरित्र के विषय में संदेह उत्पन्न करना मान चुका था।
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