उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘तो तुम मुझको मूर्ख समझती हो?’’
‘‘जी नहीं, मैं आपको समझदार अफसर मानती हूँ। केवल कुछ स्वार्थी हैं, जिसके वशीभूत हो आप इन्द्र के पीछे पड़े हैं।’’
‘‘तो मैं स्वार्थी हूँ?’’
‘‘आपके व्यवहार से तो यही समझ आ रहा है।’’
‘‘तो तुम एक स्वार्थी के घर में क्यों रहती हों?’’
‘‘मैं भी अपने स्वार्थ से रहती हूँ। अन्तर केवल यह है कि मेरा स्वार्थ किसी को दुःख अथवा हानि नहीं पहुँचाता। परन्तु आप तो केवल एक अति योग्य विद्यार्थी को शिक्षा पाने से वंचित रखने का यत्न करते रहे और अब उसको अकारण बरबाद कर उसकी पढ़ाई बन्द कराने का यत्न कर रहे हैं?’’
‘‘मैं यह उसके हित में कह रहा हूँ।’’
‘‘यदि आप सत्य ही हृदय से उसके हित-चिन्तक हैं तो उसको रायसाहब रमेश सिन्हा के घर से निकालकर अपने घर में रख लीजिये और उसका खर्चा दीजिये।’’
‘‘मेरे पास इतना है कहाँ?’’
‘‘ठीक है। यदि यह बात है तो आप उसको अपने माता-पिता की दृष्टि में बदनाम क्यों कर रहे हैं? उसको अपना मार्ग अपने ढंग पर बनाने दीजिये।’’
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