उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘कितना खर्च हो जायेगा?’’
‘‘आप इजाजत दें तो रहमत के बाप को कहकर नक्शा और तकमीना लगवाऊँ?’’
‘‘क्या हर्ज है? तकमीना सुनकर फैसला किया जा सकता है। देखो, एक बात करो। एक लड़का पैदा कर लो। पीछे जो मन करे करना।’’
‘‘अब्बाजान! कोशिश कर रहा हूँ। खुदावन्द करीम की महर हो जाये तो कोई अनहोनी बात नहीं है।’’
‘‘हाँ; मेरे यहाँ तो कुछ होने से रहा। अब तुम पर ही उम्मीद लगाये हुए हैं। अगर एक साल में कुछ न हुआ तो दूसरी शादी करनी पड़ेगी।’’
‘‘खुदा न करे।’’
मोटर में लखनऊ को जाते हुए रहमत ने पूछा, ‘‘अब्बाजान क्या कहते थे? क्या लखनऊ जाने की इजाजत नहीं दे रहे थे?’’
‘‘इन्कार तो नहीं किया। हाँ, वे पसन्द नहीं करते। उनका कहना है कि जब लड़का हो जाय, तब जो मरजी हो करना। उनका विचार है कि जब तक लड़का नहीं हो जाता, औरत का एतबार नहीं। वह कभी भी भाग सकती है। गाय के बच्चे को बाँध लें तो गाय बँध जाती है।’’
रहमत हँस पड़ी। हँसते हुए उसने कहा, ‘‘पुराने लोग शादी के बाद ही बच्चे की लालसा करने लगते हैं। उनके ख्याल में शादी के मायने बच्चे ही हैं।’’
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