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उपन्यास >> पाणिग्रहण

पाणिग्रहण

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :651
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 8566
आईएसबीएन :9781613011065

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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव


इसके अतिरिक्त अनवर जमींदारी का प्रबन्ध तो देखता नहीं था। दिन में दो घण्टे पिता से मिलने का काम था। शेष समय नावल पढ़ने, शराब पीने और बीवी से प्रेम करने में व्यतीत होता था।

रहमत का समय भी या तो अपने श्वशुर की बीवियों अथवा रखैलों के साथ ऐशो-आराम, बनाव-श्रृंगार और दूसरों की निन्दा-स्तुति में व्यतीत होता अथवा पति की बगल में बैठकर उसे मद्य पिलाने में।

इस प्रकार गाँव से पुनः एक महीना व्यतीत हो गया। इस बार जब वह लखनऊ जाने लगी तो उसको कुछ सन्देह होने लगा था कि उसके रजस्वला होने के दिन निकल गये हैं। यह उसको मुसीबत प्रतीत होने लगी, परन्तु वह समझ नहीं सकी कि क्या करे।

इस बार लखनऊ जाने की स्वीकृति लेने के लिए अनवर हुसैन नवाब साहब के पास गया तो नवाब साहब ने कह दिया, ‘‘बरखुरदार! बीवी को जितना सँभालकर रखोगे उतना ही सुखी रहोगे। यह सबको दिखाने की चीज नहीं है। यह सँभालकर रखने की शै है।’’

‘‘अब्बाजान! यह एक अंग्रेज की लड़की है। इसकी नस-नस में आजादी से घूमना और दूसरों से मेल-जोल रखना भरा हुआ है। इसको जबरदस्ती रोका तो यह मुरझा जायेगी। फूल की शान खुली हवा में लहराने से ही होती है।’’

‘‘देखो लो।’’

‘‘मैं तो यह सोच रहा हूँ कि आप इजाजत दें तो एक नई कोठी लखनऊ मैं तैयार करवा लूँ। कोठी नये फैशन की बनवाऊँ और उसमें फर्नीचर भी नये ढंग का लगवाऊँ। खाली जगह तो हमारी मोती बाग वाले बगीचे में है ही। इमारत और सामान पर ही खर्चा होगा।’’

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