उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
इस प्रश्न पर इन्द्र चुप कर गया। अब उसका दूसरा गाल भी लाल हो गया। उसने नाना को अभी भी प्रश्न-भरी दृष्टि से निहारते देखा, तो कह दिया, ‘‘नहीं, क्योंकि वह मुझसे बहुत दुर्बल था। मैंने समझा कि कहीं हत्या ही न हो जाये।’’
‘‘ओह! तो तुमने दुर्बल से झगड़ा ही क्यों किया?’’ शिवदत्त यह प्रश्न पूछते हुए घर के भीतर की ओर चल पड़ा। इन्द्र और विष्णु उसके पीछे-पीछे थे। इन्द्र ने विष्णु की ओर देखा तो विष्णु ने होठों पर अँगुली रखकर उसके चुप रहने का आग्रह कर दिया।
सब बैठक में पहुँच गये। शिवदत्त ने इन्द्र की ओर देखकर कहा, ‘‘देखो इन्द्र! दुर्बलों पर दया करना ठीक है, परन्तु दुर्बल को अपनी दुर्बलता का भास भी तो होना चाहिये। यह ज्ञान उसको तब तक नहीं हो सकता, जब तक उसको पीटा न जाये। तुमने उसको न पीटकर कुछ अच्छा नहीं किया।’’
‘‘नानाजी, यह जो लिखा है कि ‘दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान’ क्या यह सत्य नहीं?’’
‘‘यह पूर्ण सत्य नहीं है। आंशिक सत्य की पूर्ति के लिए युक्ति की आवश्यकता होती है। देखो, हमारे कार्यालय में कई चपरासी हैं। उनको तीस रुपये मासिक वेतन मिलता है। साथ ही दफ्तरी हैं। उनको पैंतालीस रुपये वेतन दिया जाता है। चपरासियों ने प्रार्थना की कि उनको भी पैंतालीस रुपये मासिक मिलना चाहिये। मैंने और हमारे एक अन्य अधिकारी ने समझाया कि दफ्तारियों का कार्य कठिन होता है, इसलिये उनको वेतन भी अधिक दिया जाता है। वे नहीं समझे। इस पर पहले पाँच चपरासियों को दफ्तरी का काम दिया गया। जब उनसे नहीं हो सका तो उनको नौकरी से पृथक कर दिया। फिर अन्य पाँच को लगाया गया। जब उनको भी कार्य से पृथक् करने लगे तो उनको समझ आया कि पन्द्रह रुपये मासिक अधिक किसी कारण से दिये जाते हैं। जब तीसरे पाँच के दल को दफ्तरी के कार्य पर रखने की स्वीकृति मिली तो उन्होंने दफ्तरी बनने से इनकार कर दिया और तीस रुपये मासिक पर चपरासी रहना ही स्वीकार कर लिया। पीछे दयावश डिसमिस हुए चपरासियों को भी बहाल कर दिया गया।
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