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उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास)

निर्मला (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8556
आईएसबीएन :978-1-61301-175

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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…


भाल–भला आज तो और रहिए।

यह कहते-कहते बाबू जी को भय हुआ कि कहीं यह महाराज सचमुच न रह जायँ इसलिए वाक्य को यों पूरा किया- हाँ, वहाँ भी लोग आपका इन्तजार कर रहे होंगे।

मोटे–एक दो दिन की तो कोई बात न थी और विचार भी यही था कि त्रिवेणी का स्नान करूँगा; पर बुरा न मानिए तो कहूँ-आप लोगों में ब्राह्मणों के प्रति लेशमात्र भी श्रद्धा नहीं है। हमारे जजमान हैं, जो हमारा मुँह जोहते रहते हैं कि पंडितजी कोई आज्ञा दें तो उसका पालन करें। हम उनके द्वार पर पहुँच जाते हैं, तो वे अपना धन्य भाग्य समझते हैं और सारा घर-छोटे से बड़े तक हमारी सेवा सत्कार में मग्न हो जाते हैं। जहाँ अपना आदर नहीं, वहीं एक क्षण भी ठहरना असह्य है। जहाँ ब्राह्मण का आदर नहीं, वहाँ कल्याण नहीं हो सकता।

भाल–महाराज, हमसे तो ऐसा अपराध नहीं हुआ।

मोटे–अपराध नहीं हुआ! और अपराध कहते किसे हैं? अभी आप ही ने घर में जाकर कहा कि यह महाशय तीन सेर मिठाई चट कर गये, पक्की तौल। आपने अभी खानेवाले देखे कहाँ। एक बार खिलाइये तो आँखें खुल जायँ। ऐसे-ऐसे महान पुरुष पड़े हैं जो पसेरी भर मिठाई खा जायँ और डकार तक न लें। एक-एक मिठाई खाने के लिये हमारी चिरौरी की जाती है, रुपये दिये जाते हैं। हम भिक्षुक ब्राह्मण नहीं हैं, जो आपके द्वार पर पड़े रहें। आपका नाम सुन कर आये थे, यह न जानते थे कि यहाँ मेरे भोजन के भी लाले पड़ेंगे। जाइये, भगवान आपका कल्याण करें।

बाबू साहब ऐसा झेंपे कि मुँह से बात न निकली। जिन्दगी भर में उन पर कभी ऐसे फटकार न पड़ी थी। बहुत बातें बनायीं-आप की चर्चा न थी, एक दूसरे ही महाशय की बात थी, लेकिन पंडित का क्रोध शांत न हुआ। वह सब कुछ सह सकते थे, पर अपने पेट की निन्दा न सह सकते थे। औरतों को रूप की निंदा जितनी अप्रिय लगती है, उससे कहीं अधिक पुरुषों को अपने पेट की निंदा लगती! बाबू साहब मनाते तो थे; पर धड़का भी समाया हुआ था कि यह टिक न जायँ। उनकी कृपणता का परदा खुल गया था, अब इसमें सन्देह न था। उस पर्दे को ढांकना जरुरी था। अपनी कृपणता को छिपाने के लिए उन्होंने कोई बात उठा न रखी; पर होनेवाली बात होकर रही। पछता रहे थे कि कहाँ से घर में उसकी बात कहने गया और कहा भी तो उच्च स्वर में। यह दुष्ट भी कान लगाये सुनता रहा। किन्तु अब पछताने से क्या हो सकता था? न जाने किस मनहूस की सूरत देखी थी कि यह विपत्ति गले पड़ी। अगर इस वक्त यहाँ से रुष्ट होकर चला गया; तो वहाँ जाकर बदनाम करेगा और मेरा सारा कौशल खुल जायगा। अब तो इसका मुँह बन्द कर देना ही पड़ेगा।

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