उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास) निर्मला (उपन्यास)प्रेमचन्द
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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…
यह सोच-विचार करते हुए वह घर में जाकर रँगीली से बोले-इस दुष्ट ने हमारी तुम्हारी बातें सुन ली। रूठकर चला जा रहा है।
रँगीली–जब तुम जानते थे कि द्वार पर खड़ा है तो धीरे से क्यों न बोले?
भाल–विपत्ति आती है! तो अकेले नहीं आती। यह क्या जानता था कि वह द्वार पर कान लगाये खड़ा है।
रँगीली–न जाने किसका मुँह देखा था।
भाल–वही दुष्ट सामने लेटा हुआ था। जानता तो उधर ताकता ही नहीं। अब तो इसे कुछ दे-दिलाकर राजी करना पड़ेगा।
रँगीली–ऊँह, जाने भी दो। जब तुम्हें वहाँ विवाह ही नहीं करना है, तो क्या परवाह है? जो चाहे समझे, जो चाहे कहे!
भाल–यों जान न बचेगी। लाओ दस रुपये विदाई के बाहने दे दूँ। ईश्वर फिर इस मनहूस की सूरत न दिखाये।
रँगीली ने बहुत अछताते-पछताते दस रुपये निकाले और बाबू साहब ने उन्हें जाकर पंडितजी के चरणों पर रख दिया। पंडितजी ने दिल में कहा–धत्तेरे मक्खीचूस की-ऐसा रगड़ा कि याद करोगे। तुम समझते होगे कि दस रुपये देकर इसे उल्लू बना लूँगा। इस फेर में न रहना। यहाँ तुम्हारी नस-नस पहचानते हैं। रुपये जेब में रख लिया और आशीर्वाद देकर अपनी राह ली।
बाबू साहब बड़ी देर तक खड़े सोच रहे थे-मालूम नहीं, अब भी मुझे कृपण समझ रहा है, या परदा ढँक गया। कहीं ये रुपये भी तो पानी में नहीं गिर पड़े।
४
कल्याणी के सामने अब एक विषम समस्या आ खड़ी हुई। पति के देहान्त के बाद उसे अपनी दुरवस्था का यह पहला और बहुत ही कड़वा अनुभव हुआ। दरिद्र विधवा के लिए इससे बड़ी और क्या विपत्ति हो सकती है कि जवान बेटी सिर पर सवार हो? लड़के नंगे पाँव पढ़ने जा सकते हैं, चौंका-बर्तन भी अपने हाथ से किया जा सकता है। रूखा-सूखा खकर निर्वाह किया जा सकता है, झोपड़ें में दिन काटे जा सकते हैं लेकिन युवती कन्या घर में नहीं बैठाई जा सकती। कल्याणी को भालचन्द्र पर ऐसा क्रोध आता था कि स्वयं जाकर उसके मुँह में कालिख लगाऊं, सिर के बाल नोच लूँ, कहूँ कि अपनी बात से फिर गया, तू अपने बाप का बेटा नहीं। पंडित मोटेराम ने उनकी कपट-लीला का नग्न वृत्तान्त सुना दिया था।
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