उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास) निर्मला (उपन्यास)प्रेमचन्द
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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…
भाल–तुम अपने सिवा सारी दुनिया को नादान समझती हो। तुम कहो या मैं कहूँ, बात एक ही है। जो बात तय हो गयी, वह हो गई; अब मैं उसे फिर न उठाना चाहता। तुम्हीं तो बार-बार कहती थीं कि मैं वहाँ न करूँगी। तुम्हारे ही कारण मुझे अपनी बात खोनी पड़ी। अब तुम फिर रंग बदलती हो। यह मेरी छाती पर मूँग दलना है। आखिर तुम्हें कुछ तो मान-अपमान का विचार करना चाहिए।
रँगीली–तो मुझे क्या मालूम था कि विधवा की दशा इतनी हीन हो गयी है? तुम्हीं ने तो कहा था कि उसने पति की सारी सम्पत्ति छिपा रखी है और अपनी गरीबी का ढोंग रचकर काम निकालना चाहती है। एक ही छँटी हुई औरत है। तुमने जो कहा, वह मैंने मान लिया। भलाई करके बुराई करने में तो लज्जा और संकोच है। बुराई करके भलाई करने में कोई संकोच नहीं। अगर तुम ‘हाँ’ कर आये होते और मैं ‘नहीं’ करने को कहती, तो तुम्हारा संकोच उचित था। ‘नहीं’ करने के बाद ‘हाँ’ करने में तो अपना बड़प्पन है।
भाल–तुम्हें बड़प्पन मालूम होता हो, मुझे तो लुच्चापन ही मालूम होता है। फिर तुमने यह कैसे मान लिया कि मैंने वकीलाइन के विषय में जो बात कही थी, वह झूठी थी! क्या वह पत्र देखकर? तुम जैसी खुद सरल हो, वैसे ही दूसरों को भी सरल समझती हो।
रँगीली–इस पत्र में बनावट नहीं मालूम होती। बनावट की बात दिल में चुभती नहीं। उसमें बनावट की गन्ध अवश्यक रहती है।
भाल–बनावट की बात तो ऐसी चुभती है कि सच्ची बात उसके सामने बिल्कुल फीकी मालूम होती है। यह किस्से-कहानियाँ लिखने वाले, जिनकी किताबें पढ़- पढ़कर तुम घन्टों रोती हो, क्या सच्ची बातें लिखते हैं? सरासर झूठ का तूमार बाँधते हैं। यह एक कला है।
रँगीली–क्यों जी, तुम मुझसे भी उड़ते हो! दाई से पेट छिपाते हो? मैं तुम्हारी बातें मान जाती हूँ तो तुम समझते हो, इसे चकमा दिया। मगर मैं तुम्हारी एक- एक नस पहचानती हूँ। तुम अपना ऐब मेरे सिर मढ़कर खुद बेदाग बचना चाहते हो। बोलो, कुछ झूठ कहती हूँ, जब वकील साहब जीते थे, तो तुमने सोचा था कि ठहराव की जरूरत क्या है, वह खुद ही जितनी उचित समझेंगे, देंगे, बल्कि बिना ठहराव के और भी ज्यादा मिलने की आशा होगी। अब जब वकील साहब का देहान्त हो गया तो तरह-तरह के हीले-हवाले करने लगे। यह भलमनसी नहीं, छोटापन है; इसका इलजाम भी तुम्हारे ही सिर है। मैं अब शादी-ब्याह के नगीच न जाऊँगी। तुम्हारी जैसी इच्छा हो, करो। ढोंगी आदमियों से मुझे चिढ़ है। जो बात करो, सफाई से करो, बुरा हो या अच्छा! ‘हाथी दाँत खाने के और दिखाने के और’ वाली नीति पर चलना तुम्हें शोभा नहीं देता। बोलो, अब भी वहाँ शादी करते हो या नहीं?
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