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उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास)

निर्मला (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8556
आईएसबीएन :978-1-61301-175

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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…


रँगीली–साफ बात कहने में संकोच क्या? हमारी इच्छा है, नहीं करते। किसी का कुछ लिया तो नहीं है? जब दूसरी जगह दस हजार नगद मिल रहे हैं तो वहाँ क्यों न करूँ? उनकी लड़की कोई सोने की थोड़े ही है। वकील साहब जीते होते तो शरमाते-शरमाते पन्द्रह बीस हजार दे मरते। अब वहाँ क्या रखा है?

भाल–एक दफा जबान देकर मुकर जाना अच्छी बात नहीं। कोई मुख से कुछ न कहे, पर बदनामी हुए बिना नहीं रहती। मगर तुम्हारी जिद से मजबूर हूँ।

रँगीलीबाई ने पान खाकर खत खोला और पढ़ने लगीं। हिन्दी का अभ्यास बाबू साहब को तो बिल्कुल न था और यद्यपि रँगीलीबाई भी शायद ही कभी किताब पढ़ती हों, पर खत-वत पढ़ लेती थीं। पहली ही पाँति पढ़कर उनकी आँखें सजल हो गयीं, और पत्र समाप्त किया तो उनकी आँखों से आँसू रहे थे-एक-एक शब्द करुणा के रस में डूबा हुआ था। एक-एक अक्षर से दीनता टपक रही थी। रँगलीबाई की कठोरता पत्थर की नहीं, लाख की थी-जो एक ही आँच से पिघल जाती है। कल्याणी के करुणोत्पादक शब्दों ने उनके स्वार्थ-मंडित हृदय को पिघला दिया। रुँधे हुए कंठे से बोलीं-अभी ब्राह्मण बैठा है न?

भालचन्द्र पत्नी के आँसुओं को देख-देखकर सूखे जाते थे। अपने ऊपर झल्ला रहे थे कि नाहक मैंने यह खत इसे दिखाया। इसकी जरूरत क्या थी? इतनी बड़ी भूल उनसे कभी न हुई थी। संदिग्ध भाव से बोले-शायद बैठा हो, मैंने तो जाने को कहा दिया था। रँगीली ने खिड़की से झाँककर देखा। पंडित मोटेराम जी बगुले की तरह ध्यान लगाये बाजार के रास्ते की ओर ताक रहे थे। लालसा में व्यग्र होकर कभी यह पहलू बदलते, कभी वह पहलू। ‘एक आने की मिठाई’ ने तो आशा की कमर ही तोड़ दी थी, उसमें भी यह विलम्ब, दारुण दशा थी। उन्हें बैठे देखकर रँगीलीबाई बोली-है-है अभी है, जाकर कह दो, हम विवाह करेंगे, जरूर करेंगे। बेचारी बड़ी मुसीबत में हैं।

भाल–तुम कभी-कभी बच्चों की-सी बातें करने लगती हो, अभी उससे कह आया हूँ कि मुझे विवाह करना मंजूर नहीं। एक लम्बी-चौड़ी भूमिका बाँधनी पड़ी। अब जाकर यह संदेश कहूँगा, तो वह अपने दिल में क्या कहेगा, जरा सोचो तो? यह शादी विवाह का ममला है। लड़कों का खेल नहीं कि अभी एक बात तय की, अभी पलट गये। भले आदमी की बात न हुई, दिल्लगी हुई।

रँगीली–अच्छा, तुम अपने मुँह से न कहो, उस ब्राह्मण को मेरे पास भेज दो। मैं इस तरह समझा दूँगी कि तुम्हारी बात भी रह जाय और मेरी भी। इसमें तो तुम्हें कोई आपत्ति नहीं है।

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