उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास) निर्मला (उपन्यास)प्रेमचन्द
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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…
भाल–जब मैं बेईमान, दगाबाज और झूठा ठहरा, तो मुझसे पूछना ही क्या! मगर खूब पहचानती हो आदमियों को! क्या कहना है, तुम्हारी इस सूझ-बूझ की बलैया ले लें।
रँगीली–हो बड़े हयादार, अब भी नहीं शरमाते। ईमान से कहो, मैंने बात ताड़ ली कि नहीं?
भाल–अजी जाओ, वह दूसरी औरतें होती हैं जो मर्दों को पहचानती हैं। अब तक मैं यही समझता था कि औरतों की दृष्टि बड़ी सूक्ष्म होती है, पर आज यह विश्वास उठ गया और महात्माओं ने औरतों के विषय में जो तत्व की बात कहीं हैं, उनको मानना पड़ा।
रँगीली–जरा आईने में अपनी सूरत तो देख आओ, तुम्हें मेरी कसम है। जरा देख लो, कितना झेंपे हुए हो।
भाल–सच कहना, कितना झेंपा हुआ हूँ।
रँगीली–इतना ही, जितना कोई भलमानस चोर चोरी खुल जाने पर झेंपता है।
भाल–खैर, मैं झेंपा ही सही; पर शादी वहाँ न होगी।
रँगीली–मेरी बला से, जहाँ चाहो करो। क्यों, भुवन से एक बार क्यों नहीं पूछ लेते?
भाल–अच्छी बात है, उसी पर फैसला रहा।
रँगीली–जरा भी इशारा न करना।
भाल–अजी मैं उसकी तरफ ताकूँगा भी नहीं।
संयोग से ठीक इसी वक्त भुवनमोहन भी आ पहुँचा ऐसे सुन्दर सुडौल बलिष्ट युवक कालेजों में बहुत कम देखने में आते हैं। बिल्कुल माँ को पड़ा था, वही गोरा-चिट्टा रंग, वही पतले-पतले गुलाब की पत्ती-के- से ओंठ, वही चौड़ा माथा, वही बड़ी-बड़ी आँखें, डील- डौल बाप-का सा था। ऊँचा कोट, ब्रीचेज़, टाई, बूट, हैट उस पर खूब खिल रहे थे। हाथ में एक हाकी-स्टिक थी। चाल में जवानी का गरूर था, आँखों में आत्मगौरव।
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