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मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534
आईएसबीएन :978-1-61301-172

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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।


वज्रधर-मैं तो तैयार हूं लेकिन अगर उन्हें कुछ पेशोपेश हो, तो मैं उन्हें मजबूर नहीं करना चाहता। यहां सैकड़ों आदमी मुंह खोले हुए हैं। आज उन्हें लिख दो कि या तो इसी जाड़े में शादी कर दें, या कहीं और बातचीत करें।

चक्रधर ने देखा कि अवसर आ गया है। आज निश्चय ही कर लेना चाहिए।

बोले-पेशोपेश जो कुछ होगा, आप ही की तरफ से होगा। बात यह है वह कन्या मुंशी यशोदानन्दन की पुत्री नहीं है।

वज्रधर-पुत्री नहीं है। वह तो लड़की ही बताते थे। खैर, पुत्री न होगी भतीजी होगी, भांजी होगी, नातिन होगी, बहन। होगी मुझे आम खाने से मतलब है या पेड़ गिनने से?

चक्रधर– वह लड़की उन्हें किसी मेले में मिली थी। तब उसकी उम्र तीन-चार बरस की थी। उन्हें उस पर दया आ गयी, घर लाकर पाला, पढ़ाया-लिखाया।

वज्रधर-(स्त्री से) कितना दगाबाज आदमी है। क्या अभी तक लड़की के मां-बाप का पता नहीं चला?

चक्रधर– जी नहीं, मुंशीजी ने उनका पता लगाने की बड़ी चेष्टा की पर कोई फल न निकला।

वज्रधर-अच्छा, तो यह किस्सा है। बड़ा झूठा आदमी है, बना हुआ मक्कार।

निर्मला– तुम साफ-साफ लिख दो, मुझे नहीं करना है। बस!

वज्रधर-मैं तुमसे तो सलाह नहीं पूछता हूं। मैं खुद जानत हूं ऐसे धोखेबाजों से साथ कैसे पेश आना चाहिए।

खाना खाकर दोनों आदमी उठे, तो मुंशीजी ने कहा– कलम-दवात लाओ, मैं इसी वक्त यशोदानन्दन को खत लिख दूं। बिरादरी का वास्ता न होता, तो हरजाने का दावा कर देता।

चक्रधर आरक्त मुख और संकोच-रुद्ध कण्ठ से बोले-मैं तो वचन दे आया था।

वज्रधर-तो यह क्यों नहीं कहते कि तुमने सब कुछ आप-ही– आप तय कर लिया है। तुमने लड़की सुन्दर देखी, रीझ गये, मगर याद रखो स्त्री में सुन्दरता ही सबसे बड़ा गुण नहीं है। मैं तुम्हें हरगिज यह शादी न करने दूंगा।

चक्रधर– मेरा खयाल है कि स्त्री हो या पुरुष गुण और स्वभाव ही उसमें मुख्य वस्तु है। इसके सिवा और सभी बातें गौण हैं।

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