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मनोरमा (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :283
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8534
आईएसबीएन :978-1-61301-172

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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।


वसुमती– मुझसे बातें न बनाओ, समझ गये। जो एक औरत को काबू में नहीं रख सकता, वह रियासत का भार क्या संभालेगा?

यह कहकर वह उठी और झल्लायी हुई छत पर चली गयी। विशालसिंह कुछ देर उदास खड़े रहे, तब रामप्रिया के कमरे में प्रवेश किया। वह चिराग के सामने बैठी कुछ लिख रही थी। पति की आहट पाकर सिर उठाया, तो आंख में आंसू भरे हुए थे। विशालसिंह ने चौंककर पूछा-क्या बात है, प्रिये? क्यों रो रही हो? मैं तुम्हें एक खुशखबरी सुनाने आया हूं?

रामप्रिया ने आंसू पोंछते हुए कहा– सुन चुकी हूं, मगर आप उसे खुशखबरी कैसे कहते हैं? मेरी प्यारी बहन सदा के लिए संसार से चली गयी, क्या यह खुशखबरी है? दुखिया ने संसार का सुख न देखा। उसका तो जन्म ही व्यर्थ हुआ। रोते-रोते उम्र बीत गयी।

यह कहते-कहते रामप्रिया सिसक-सिसककर रोने लगी। विशालसिंह को उसका रोना बुरा मालूम हुआ। बाहर आकर महफिल में बैठ गये। मेडूखां सितार बजा रहे थे। सारी महफिल तन्मय हो रही थी। जो लोग फजलू का गाना न सुन सके थे, वे भी इस वक्त सिर घुमाते और झूमते नजर आते थे। किन्तु इस आनन्द और सुधा के अनन्त प्रवाह में एक प्राणी हृदय की ताप से विकल हो रहा था। वह राजा विशालसिंह थे, सारी बारात हंसती थी, दूल्हा रो रहा था।

दूसरी वर्षा भी आधी से ज्यादा बीत गयी, लेकिन चक्रधर ने माता-पिता से अहल्या का वृत्तान्त गुप्त रक्खा। जब मुंशीजी पूछे वहां क्या बात कर आये? आखिर यशोदानन्दन को विवाह करना है या नहीं? न करना हो तो साफ-साफ कह दें। करना हो, तो उसकी तैयारी करें। तो चक्रधर कुछ इधर-उधर की बातें करके टाल जाते। उधर यशोदानन्दन बार-बार लिखते तुमने मुंशीजी से सलाह की या नहीं। अगर तुम्हें उनसे कहते शर्म आती हो, तो मैं ही आकर कहूँ। आखिर इस तरह कब तक समय टालोगे? अहल्या तुम्हारे सिवा और किसी से विवाह न करेगी। चक्रधर इन पत्रों के जवाब में भी यही लिखते कि मैं खुद फिक्र में हूं। ज्योंही मौका मिला जिक्र करूंगा। मुझे विश्वास है कि पिताजी राजी हो जायेंगे।

जन्माष्टमी के उत्सव के बाद मुंशीजी घर आये तो उनके हौसले बढ़े हुए थे। राजा साहब के साथ-ही-साथ उनके सौभाग्य का सूर्य उदय होता हुआ ही मालूम होता था। अब वह अपने ही शहर के किसी रईस के घर चक्रधर की शादी कर सकते थे। लेकिन मुंशी यशोदानन्दन को वचन दे चुके थे, इसलिए उनसे एक बार पूछ लेना उचित था। अगर उनकी तरफ से जरा भी विलम्ब हो तो साफ कह देना चाहते थे कि मुझे आपके यहां विवाह करना मंजूर नहीं। यों दिल में निश्चय करके एक दिन भोजन करते समय उन्होंने चक्रघर से कहा– मुंशी यशोदानन्दन भी कुछ ऊल-जलूल आदमी हैं। अभी तक कानों में तेल डाले हुए बैठे हैं।

चक्रधर– उनकी तरफ से तो देर नहीं है। वह तो मेरे खत का इन्तजार कर रहे हैं।

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