उपन्यास >> मनोरमा (उपन्यास) मनोरमा (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘मनोरमा’ प्रेमचंद का सामाजिक उपन्यास है।
वज्रधर-तुम्हारे सिर नयी रोशनी का भूत तो नहीं सवार हुआ था। एकाएक यह क्या काया पलट हो गयी?
चक्रधर– मेरी सबसे बड़ी अभिलाषा तो यही है कि आप लोगों की सेवा करता जाऊं, आपकी मरजी के खिलाफ कोई काम न करूं लेकिन सिद्धान्त के विषय में मजबूत हूं।
वज्रधर-सेवा करना तो नहीं चाहते, मुंह में कालिख लगाना चाहते हो, मगर याद रखो, तुमने यह विवाह किया तो अच्छा न होगा। ईश्वर वह दिन न लाये कि मैं अपने कुल में कलंक लगते देखूँ।
चक्रधर– तो मेरा भी यही निश्चय है कि मैं और कहीं विवाह न करूंगा।
यह कहते हुए चक्रधर बाहर चले आये और बाबू यशोदानन्दन को एक पत्र लिखकर सारा किस्सा बयान किया। उसके अन्तिम शब्द ये थे-पिताजी राजी नहीं होते और यद्यपि मैं सिद्धान्त के विषय में उनसे दबना नहीं चाहता, लेकिन उनसे अलग रहने और बुढ़ापे में उन्हें इतना बड़ा सदमा पहुंचाने की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता। मैं बहुत लज्जित होकर आपसे क्षमा चाहता हूं। अगर ईश्वर की यही इच्छा है, तो मैं जीवन पर्यन्त अविवाहित ही रहूंगा, लेकिन यह असम्भव है कि कहीं और विवाह कर लूं।’
इसके बाद उन्होंने दूसरा पत्र अहल्या के नाम लिखा। अन्तिम शब्द ये थे-‘‘मैं अपने माता-पिता का वैसा ही भक्त हूं, जैसा कोई और बेटा हो सकता है। किन्तु यदि इस भक्ति और आत्मा की स्वाधीनता में विरोध आ पड़े तो मुझे आत्मा की रक्षा करने में जरा भी संकोच न होगा। अगर मुझे यह भय न होता कि माताजी अवज्ञा से रो-रोकर प्राण दे देंगी और पिताजी देश-विदेश मारे-मारे फिरेंगे, तो मैं यह असह्य यातना न सहता। लेकिन मैं सब-कुछ तुम्हारे ही फैसले पर छोड़ता हूं केवल इतनी ही याचना करता हूं कि मुझे पर दया करो।’’
९
मुद्दत के बाद जगदीशपुर के भाग जगे, कार्तिक लगते ही एक ओर राजभवन की मरम्मत होने लगी, दूसरी ओर गद्दी के उत्सव की तैयारियां शुरू हुईं।
राजा साहब ताकीद करते रहते थे कि प्रजा पर जरा भी सख्ती न होने पाये। दीवान साहब से उन्होंने जोर देकर कह दिया था कि बिना पूरी मजदूरी दिये किसी से काम न लीजिए, लेकिन यह उनकी शक्ति से बाहर था कि आठों पहर बैठे रहें। उनके पास अगर कोई शिकायत पहुंचती, तो कदाचित वह राज-कर्मचारियोँ को फाड़ खाते, लेकिन प्रजा सहनशील होती है, जब तक प्याला भर न जाय, वह जबान नहीं खोलती। फिर गद्दी के उत्सव में थोड़ा-बहुत कष्ट होना स्वाभाविक समझकर और भी कोई न बोलता था।
तीन महीने तक सारी रियासत के बढ़ई मिस्त्री, दरजी, चमार, कहार सब दिल तोड़कर काम करते रहे। चक्रधर को रोज खबरें मिलती रहती थीं कि प्रजा पर बड़े-बड़े अत्याचार हो रहे हैं, लेकिन वह राजा साहब से शिकायत करके उन्हें असमंजस में न डालना चहाते थे। अकसर खुद जाकर मजूरों और कारीगरों को समझाते थे। इस तरह तीन महीने गुजर गये। राजभवन का कलेवर नया हो गया। सारे कस्बे में रोशनी के फाटक बन गये, तिलकोत्सव का विशाल पण्डाल तैयार हो गया।
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