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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


झिनकू–रानीजी का क्या पूछना, सचमुच रानी हैं। आज शहर भर में वाह-वाह हो रही है। बुढ़िया के राज में हकीम, डॉक्टर लूटते थे, अब गुनियों की कदर है।

मुंशी–पहुँचा नहीं कि सौ काम छोड़कर दौड़ी हुई आकर खड़ी हो जाती हैं। क्या है लालाजी, क्या है लालाजी? जब तक रहता हूँ, दिमाग़ चाट जाती हैं, दूसरे से बात नहीं करतीं। लल्लू को बहुत याद करती हैं। खोद-खोदकर उन्हीं की बातें पूछती हैं। सब्र करो, होली के दिन तुम्हारी नज़र दिला दूँगा, मगर भाई इतना याद रखो कि यहाँ पक्का गाना गाया और निकाले गए। ‘तूम तनाना’ की धुन मत देना।

इतने में महादेव नाम का एक बजाज सामने आया और दूर ही से सलाम करके बोला–मुंशीजी, हुज़ूर के मिज़ाज़ अच्छे हैं?

मुंशीजी ने त्योरियाँ बदलकर कहा–हुज़ूर के मिजाज की फ़िक्र न करो, अपना मतलब कहो।

महादेव–हुज़ूर को सलाम करने आया था।

मुंशी–अच्छा,  सलाम।

महादेव–आप हमसे कुछ नाराज़ मालूम होते हैं। हमसे तो कोई ऐसी बात...

मुंशी–बड़े आदमियों से मिलने आया करो, तो तमीज़ से बात किया करो। मैं तुम्हें ‘सेठजी’ कहने के बदले ‘अरे, ओ बनिये’ कहूँ, तो तुम्हें बुरा लगेगा या नहीं?

महादेव–हाँ, हुज़ूर इतनी खता तो हो गई, अब माफ़ी दी जाये। नया माल आया है, हुक्म हो तो कुछ कपडे़ भेजूँ।

मुंशी–फिर वही बनियेपन की बातें! कभी आज तक और भी आये थे पूछने कि कपड़े चाहिए हुज़ूर को? मैं वही हूँ या कोई और? अपना मतलब कहो साफ़-साफ़?

महादेव–हुज़ूर तो समझते ही हैं, मैं क्या कहूँ?

मुंशी–अच्छा, तो सुनो लालाजी, घूस नहीं लेता, रिश्वत नहीं लेता। जब तहसीलदारी के ज़माने ही में न लिया, तो अब क्या लूँगा? लड़की की शादी होनेवाली है, उसमे जितना कपड़ा लगेगा, वह तुम्हारे सिर। बोलो, मंजूर हो तो आज ही नज़र दिलवा दूँ। साल भर में एक लाख का माल बेचोगे, जो बेचने का शऊर होगा। हाँ, बुढ़िया रानी का ज़माना नहीं है कि एक के चार लो। बस, रुपये में एक आना बहुत है। इससे ज़्यादा लिया और गर्दन नापी गई।

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