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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


अब मुंशीजी के द्वार पर सायलों की भीड़ लगी रहती है, जैसे क्वार के महीने में वैद्यों के द्वार पर रोगियों की। मुंशीजी किसी को निराश नहीं करते, और न कुछ कर सकें तो बातों से ही पेट भर देते हैं। वह लाख बुरे हों, फिर भी उनसे कहीं अच्छे हैं, जो पद पाकर अपने को भूल जाते हैं, जमीन पर पाँव ही नहीं रखते। यों तो कामधेनु भी सबकी इच्छा पूरी नहीं कर सकती, पर मुंशीजी की शरण आकर दुःखी हृदय को शांति अवश्य मिलती है, उसे आशा की झलक दिखाई देने लगती है। मुंशीजी कुछ दिनों तक तहसीलदारी कर चुके हैं, अपनी धाक ज़माना जानते हैं। जो काम पहुँच से बाहर होता है, उसके लिए भी ‘हाँ-हाँ कर देना, आँखें मारना, उड़नधाइयाँ बताना, इन चालों में वह सिद्ध हैं। स्वार्थ की दुनिया है, वकील, ठीकेदार बनिये, महाजन,गरज हर तरह के आदमी उनसे कोई-न-कोई काम निकालने की आशा रखते हैं और किसी-न-किसी हीले से कुछ-न-कुछ दे ही मरते हैं।

मनोरमा का राजा साहब से विवाह होना था कि मुंशीजी का भाग्य-सूर्य चमक उठा। एक ठेकेदार को रियासत के कई मकानों का ठीका दिलाकर अपना मकान पक्का करा लिया, बनिया बोरों अनाज मुफ़्त में भेज देता, धोबी कपड़ों की धुलाई नहीं लेता। सारांश यह कि तहसीलदार साहब के ‘पौ बारह’ हैं। तहसीलदारी में जो मज़े न उड़ाए थे, वह अब उड़ा रहे हैं।

रात के आठ बज गए थे। झिनकू अपने समाजियों के साथ आ बैठा। मुंशीजी मसनद पर बैठे पेचवान पी रहे थे। गाना होने लगा।

मुंशी–वाह झिनकू, वाह! क्या कहना। अब तुम्हें एक दिन दरबार में ले चलूँगा।

झिनकू–जब मर जाऊँगा, तब ले जाइएगा क्या? सौ बार कह चुके, भैया हमारी भी परवरिस कर दो, मगर अपनी तक़दीर ही खोटी है तो तुम क्या करोगे। नहीं तो क्या ग़ैर-ग़ैर तो तुम्हारी बदौलत मूँछों पर ताव देते और मैं कोरा ही रह जाता। यों तुम्हारी दुआ से साँझ तक रोटियाँ तो मिल जाती हैं, लेकिन राज दरबार का सहारा हो जाये, तो ज़िन्दगी का कुछ मज़ा मिले।

मुंशी–क्या बताऊँ जी, बार-बार इरादा करता हूँ लेकिन ज्यों ही वहाँ पहुँचा कभी राजा साहब और कभी रानी साहब कोई ऐसी बात छेड़ देते हैं। कि मुझे कुछ कहने की याद ही नहीं रहती। मौक़ा ही नहीं मिलता।

झिनकू–कहो, चाहे न कहो, मैं तो अब तुम्हारे दरवाज़े से टलने का नहीं।

मुंशी–कहूँगा जी और बदकर। यह समझ लो कि तुम वहाँ हो गए। बस, मौक़ा मिलने भर की देर है। रानी साहब इतना मानती हैं कि जिसे चाहूँ, निकलवा दूँ, जिसे चाहूँ रखवा दूँ। दीवान साहब भी अब दूर ही से सलाम करते हैं। फिर मुझे अपने काम-से-काम है, किसी की शिकायत क्यों करूँ? मेरे लिए कोई रोकटोक नहीं है, मगर दीवान साहब बाप हैं तो क्या...बिना इत्तला कराए सामने नहीं जा सकते।

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