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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


अहिल्या ने सिसकियों को दबाकर कहा–नहीं तो, मैं बिलकुल अच्छी हूँ। आप अलबत्ता इतने दुबले हो गए हैं कि पहचाने नहीं जाते।

चक्रधर–खैर, मेरे दुबले होने के कारण हैं, लेकिन तुम क्यों ऐसी घुली जा रही हो? कम-से-कम अपने को इतना तो बनाए रखो कि जब मैं छूटकर आऊँ, तो मेरी कुछ मदद कर सको। अपने लिए नहीं, तो मेरे लिए तो तुम्हें अपनी रक्षा करनी ही चाहिए। अगर तुमने इसी भाँति घुल-घुलकर प्राण दे दिये, तो शायद जेल से मेरी भी लाश ही निकले। तुम्हें वचन देना पड़ेगा कि तुम अब से अपनी ज़्यादा फिक्र रखोगी। मेरी ओर से तुम निश्चिन्त रहो। मुझे यहाँ कोई तक़लीफ़ नहीं है। बड़ी शान्ति से दिन कट रहे हैं। मुझे तो ऐसा मालूम होता है कि मेरे आत्म-सुधार के लिए इस तपस्या की बड़ी ज़रूरत थी। मैंने अँधेरी कोठरी में जो कुछ पाया, वह पहले प्रकाश में रहकर न पाया था। मुझे अगर उसी कोठरी में सारा जीवन बिताना पड़े, तो भी मैं न घबराऊँगा। हमारे साधु-संत अपनी इच्छा से जीवनपर्यन्त कठिन-से-कठिन तपस्या करते हैं। मेरी तपस्या उनसे कहीं सरल और सुसाध्य है। अगर दूसरों ने मुझे इस संयम का अवसर दिया, तो मैं उनसे बुरा क्यों मानूँ? मुझे तो उनका उपकार मानना चाहिए। मुझे वास्तव में इस संयम की बड़ी ज़रूरत थी, नहीं तो मेरे मन की चंचलता मुझे न जाने कहाँ ले जाती। प्रकृति सदैव हमारी कमी को पूरी करती रहती है, यह बात अब तक मेरी समझ में न आई थी। अब तक मैं दूसरों का उपकार करने का स्वप्न देखा करता था। अब ज्ञात हुआ कि अपना उपकार ही दूसरों का उपकार है! जो अपना उपकार नहीं कर सकता, वह दूसरों का उपकार क्या करेगा? मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, यहाँ बड़े आराम से हूँ और इस परीक्षा में पड़ने से प्रसन्न हूँ। बाबूजी तो कुशल से हैं?

अहिल्या–हाँ, आपको बराबर याद किया करते हैं। मेरे साथ वह भी आये हैं, पर यहाँ न आने पाए। अम्माँ और बाबूजी में कई महीनों से खटपट है। वह कहती हैं, बहुत दिन तो समाज की चिन्ता में दुबले हुए, अब आराम से घर बैठो, क्या तुम्हीं ने समाज का ठीका ले लिया है? बाबूजी कहते हैं, यह काम तो उसी दिन छोड़ूँगा जिस दिन प्राण शरीर को छोड़ देगा। बेचारे बराबर दौड़ते रहते हैं। फुर्सत मिलती है, तो लिखते हैं। न जाने ऐसी क्या हवा बदल गई है कि नित्य कहीं-न-कहीं से उपद्रव की ख़बर आती रहती है। आजकल स्वास्थ्य भी बिगड़ गया है, पर आराम करने की तो उन्होंने कसम खा ली है। बूढ़े ख्वाज़ा महमूद से न जाने किस बात पर अनबन हो गई है। आपके चले जाने के बाद कई महीने तक खूब मेल रहा, लेकिन अब फिर वही हाल है।

अहिल्या ने ये बातें महत्त्व की समझकर न कहीं, बल्कि इसलिए कि वह चक्रधर का ध्यान अपनी तरफ़ से हटा देना चाहती थी। चक्रधर विरक्त होकर बोले–दोनों आदमी फिर धर्मान्धता के चक्कर में पड़ गए होंगे। जब तक हम सच्चे धर्म का अर्थ न समझेंगे, हमारी यही दशा रहेगी। मुश्किल यह है कि जिन महान् पुरुषों से अच्छी धर्मनिष्ठा की आशा की जाती है, वे अपने अशिक्षित भाइयों से भी बढ़कर उद्दंड हो जाते हैं। मैं तो नीति ही को धर्म समझता हूँ और सभी सम्प्रदायों की नीति एक-सी है। अगर अंतर है तो बहुत थोड़ा। हिन्दु, मुसलमान, ईसाई, बौद्ध, सभी सत्कर्म और सद्विचार की शिक्षा देते हैं। हमें कृष्ण, राम, ईसा, मुहम्मद, बुद्ध, सभी महात्माओं का समान आदर करना चाहिए। ये मानव जाति के निर्माता हैं। जो इनमें से किसी का अनादर करता है या उनकी तुलना करने बैठता है, वह अपनी मूर्खता का परिचय देता है। बुरे हिन्दू से अच्छा मुसलमान उतना ही अच्छा है, जितना बुरे मुसलमान से अच्छा हिन्दू। देखना यह चाहिए कि वह कैसा आदमी है न कि यह कि किस धर्म का आदमी है। संसार का भावी धर्म सत्य, न्याय और प्रेम के आधार पर बनेगा। हमें अगर संसार में जीवित रहना है, तो अपने हृदय में इन्हीं भावों का संचार करना पड़ेगा। मेरे घर का तो कोई समाचार न मिला होगा?

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