उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
|
320 पाठक हैं |
राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
प्रातःकाल उसने उठकर स्नान किया और बड़ी देर तक बैठी वंदना करती रही। माघ का महीना था, आकाश में बादल छाए हुए थे, इतना कुहरा पड़ रहा था कि सामने की चीज़ न सूझती थी। सर्दी के मारे लोगों का बुरा हाल था। घरों की महरियाँ अँगीठियाँ लिये ताप रही थीं, धन्धा करने कौन जाए। मजदूरों को फ़ाका करना मंज़ूर था, पर काम पर जाना मुश्किल मालूम होता था। दूकानदारों को दूकान की परवाह न थी, बैठे आग तापते थे, यमुना में नित्य स्नान करनेवाले भक्तजन भी आज तट पर नज़र न आते थे। सड़कों पर, बाज़ार में, गलियों में, सन्नाटा छाया हुआ था। ऐसा ही कोई विपत्ति का मारा दूकानदार था, जिसने दूकान खोली हो। बस, अगर चलते-फिरते नज़र आते थे, तो वे दफ़्तर के बाबू थे, जो सर्दी से सिकुड़े जेब में हाथ डाले, कमर टेढ़ी किए, लपके चले जाते थे। अहिल्या इसी वक़्त यशोदानंदनजी के साथ गाड़ी में बैठकर जेल चली। उसे उल्लास न था, शंका और भय से दिल काँप रहा था। मानों कोई अपने रोगी मित्र को देखने जा रहा हो।
जेल में पहुँचते ही एक औरत ने उसकी तलाशी ली और उसे पास के एक कमरे में ले गई, जहाँ एक टाट का टुकड़ा पड़ा था। उसने अहिल्या को उस टाट पर बैठने का इशारा किया। तब एक कुर्सी मँगवाकर आप उस पर बैठ गई और चौकीदार से कहा–अब यहाँ सब ठीक है, क़ैदी को लाओ।
अहिल्या का कलेजा धड़क रहा था। उस स्त्री को अपने समीप बैठे देखकर उसे कुछ ढाढ़स हो रहा था, नहीं तो शायद वह चक्रधर को देखते ही उनके पैरों में लिपट जाती। सिर झुका के बैठी थी कि चक्रधर दो चौकीदारों के साथ कमरे में आए। उनके सिर पर कनटोप था और देह पर एक आधी आस्तीन का कुर्ता, पर मुख पर आत्मबल की ज्योति झलक रही थी। उसका रंग पीला पड़ गया था, दाढ़ी के बाल बढ़े हुए थे और आँखें भीतर को घुसी हुई थीं, पर मुख पर एक हल्की-सी मुस्कुराहट खेल रही थी। अहिल्या उन्हें देखकर चौंक पड़ी, उसकी आँखों से बे-अख़्तियार आँसू निकल आए। शायद कहीं और देखती तो पहचान भी न सकती। घबराई-सी उठकर खड़ी हो गई। अब दोनों-के-दोनों खड़े हैं, दोनों के मन में हज़ारों बातें हैं, उद्गार-पर-उद्गार उठते हैं, दोनों एक दूसरे को कनखियों में देखते हैं, पर किसी के मुँह से शब्द नहीं निकलता। अहिल्या सोचती है, क्या पूछूँ, इनका एक-एक अंग अपनी दशा आप सुना रहा है। उसकी आँखों में बार-बार आँसू उमड़ आते हैं, पर पी जाती है चक्रधर भी यही सोचते हैं, क्या पूछूँ, इसका एक-एक अंग इसकी तपस्या और वेदना की कथा सुना रहा है। बार-बार ठंडी साँसें खींचतें हैं, पर मुँह नहीं खुलता। वह माधुर्य कहाँ है, जिस पर उषा की लालिमा बलि जाती थी? वह चपलता कहा हैं, वह सहास छवि कहाँ हैं, जो मुखमण्डल की बलाएँ लेती थी। मालूम होता है, बरसों की रोगिणी है। आह! मेरे ही कारण इसकी यह दशा हुई है। अगर कुछ दिन और इसी तरह घुली, तो शायद प्राण ही न बचें। किन शब्दों में दिलासा दूँ, क्या कहकर समझाऊँ?
इसी असमंजस और कण्ठावरोध की दशा में खड़े-खड़े दोनों को १० मिनट हो गए। शायद उन्हें ख़याल ही न रहा कि मुलाक़ात का समय केवल २० मिनट है। यहाँ तक कि उस लेडी को उनकी दशा पर दया आयी, घड़ी देखकर बोली–तुम लोग यों ही कब तक खड़े रहोंगे? दस मिनट गुज़र गये, केवल दस मिनट और बाकी हैं।
चक्रधर मानों समाधि से जाग उठे। बोले–अहिल्या, तुम इतनी दुबली क्यों हो? बीमार हो क्या?
|