लोगों की राय

उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

320 पाठक हैं

राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


इसके बाद उस वार्डर ने फिर कई बार पूछा–कहो तो पेंसिल क़ागज़ ला दूँ; मगर चक्रधर ने हर दफ़ा यही कहा–मुझे ज़रूरत नहीं।

बाबू यशोदानंदन को ज्यों ही मालूम हुआ कि चक्रधर आगरा जेल में आ गए हैं, वह उनसे मिलने की कई बार चेष्टा कर चुके थे, पर आज्ञा न मिलती थी। साधारणतः क़ैदियों को छठे महीने अपने घर के किसी प्राणी से मिलने की आज्ञा मिल जाती थी। चक्रधर के साथ इतनी रियासत भी न की गई थी, पर यशोदानंदन अवसर पड़ने पर खुशामद भी कर सकते थे। अपना सारा ज़ोर लगाकर अन्त में उन्होंने आज्ञा प्राप्त कर ही ली–अपने लिए नहीं, अहिल्या के लिए। उस विरहिणी की दशा दिनोंदिन खराब होती जाती थी। जब से चक्रधर ने जेल में कदम रखा, उसी दिन से वह भी क़ैदियों की-सी ज़िंदगी बसर करने लगी। चक्रधर जेल में भी स्वतंत्र थे, वह भाग्य को अपने पैरों पर झुका सकते थे। अहिल्या घर में भी क़ैद थी, वह भाग्य पर विजय न पा सकती थी। वह केवल एक बार बहुत थोड़ा-सा खाती और वह भी रूखा-सूखा। वह चक्रधर को अपना पति समझती थी। पति की ऐसी कठिन तपस्या देखकर उसे आप-ही-आप बनाव-श्रंगार से, खाने-पीने से, हँसने-बोलने से अरुचि होती थी। कहाँ पुस्तकों पर जान देती थी, कहाँ अब उनकी ओर आँखें उठाकर न देखती। चारपाई पर सोना भी छोड़ दिया था। केवल ज़मीन पर एक कम्बल बिछाकर पड़ रहती। बैशाख, जेठ की गर्मी का क्या पूछना, घर की दीवारें तवे की तरह तपती हैं। घर भाड़-सा मालूम होता है। रात को खुले मैदान में भी मुश्किल से नींद आती है, लेकिन अहिल्या ने सारी गर्मी एक छोटी-सी बन्द कोठरी में सोकर काट दी।

माघ की सर्दी का क्या पूछना? प्राण तक काँपते हैं। लिहाफ़ के बाहर मुँह निकालकर मुश्किल होता है। पानी पीने से जूड़ी-सी चढ़ आती है। लोग आग पर पतंगों की भाँति गिरते हैं, लेकिन अहिल्या के लिए वही कोठरी की ज़मीन थी और एक फटा हुआ कम्बल। सारा घर समझाता था–क्यों इस तरह प्राण देती हो? तुम्हारे प्राण देने से चक्रधर का कुछ उपकार होता, तो एक बात भी थी। व्यर्थ काया को क्यों कष्ट देती हो? इसका उसके पास यही जवाब था–मुझे ज़रा भी कष्ट नहीं! आप लोगों को न जाने कैसे मैदान में गर्मी लगती है, मुझे तो कोठरी में खूब नींद आती है। आप लोगों को न जाने कैसे सर्दी लगती है, मुझे तो कम्बल में ऐसी गहरी नींद आती है कि एक बार भी आँख नहीं खुलती। ईश्वर में पहले भी उसकी भक्ति कम न थी, अब तो उसकी धर्मनिष्ठा और भी बढ़ गई। प्रार्थना में इतनी शांति है, इसका उसे पहले अनुमान न था। जब वह हाथ जोड़कर आँखें बन्द करके ईश्वर से प्रार्थना करती, तो उसे ऐसा मालूम होता कि चक्रधर स्वयं मेरे सामने खड़े हैं। एकाग्रह और निरंतर ध्यान से उसकी आत्मा दिव्य होती जाती थी। इच्छाएँ आप-ही-आप गायब हो गईं। चित्त की वृत्ति ही बदल गई। उसे अनुभव होता था कि मेरी प्रार्थनाएँ उस मातृ-स्नेहपूर्ण आँचल की भाँति, जो बालक को ढक लेता है, चक्रधर की रक्षा करती रहती हैं।

जिस दिन अहिल्या को मालूम हुआ कि चक्रधर से मिलने की आज्ञा मिल गई है, उसे आनंद के बदले भय होने लगा–वह न जाने कितने दुर्बल हो गए होंगे, न जाने उनकी सूरत कैसी बदल गई होगी। कौन जाने, हृदय बदल गया हो। यह भी शंका होती थी कि कहीं मुझे उनके सामने जाते ही मूर्च्छा न आ जाए, कहीं मैं चिल्लाकर रोने न लगूँ। अपने दिल को बार-बार मज़बूत करती थी।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book