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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


गुरुसेवक–नहीं मनोरमा, औंघते हुए आदमी को मत ठेलो, नहीं तो फिर वह इतने ज़ोर से गिरेगा कि उसकी आत्मा तक चूर-चूर हो जाएगी। मुझे तो विश्वास है कि इस तज़वीज़ से चक्रधर की पहली सज़ा भी घट जायेगी। शायद सत्य कलम को भी तेज़ कर देता है। मैं इन तीन घंटों में बिना चाय एक प्याला पिये ४० पृष्ठ लिख गया, नहीं तो हर दस मिनट में चाय पीनी ही पड़ती थी। बिना चाय की मदद के कलम ही न चलती थी।

मनोरमा–लेकिन मेरे सिर इसका एहसान न होगा?

गुरुसेवक–सच्चाई आप ही अपना इनाम है, यह पुरानी कहावत है। सत्य से आत्मा भी बलवान हो जाती है। मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, अब मुझे ज़रा भी भय नहीं है।

मनोरमा–अच्छा, अब मैं जाऊँगी। लालाजी घबरा रहे होंगे।

भाभी–हाँ, हाँ, ज़रूर जाओ, वहाँ माताजी के स्तनों में दूध उतर आया होगा। यहाँ कौन अपना बैठा हुआ है?

मनोरमा–भाभी, लौंगी अम्माँ को जितना नीच समझती हो, उतनी नीच नहीं हैं। तुम लोगों के लिए वह अब भी रोया करती हैं।

भाभी–अब बहुत बखान न करो, जी जलता है। वह तो मरती भी हो, तो भी देखने न जाऊँ। किसी दूसरे घर में होती, तो अभी तक बर्तन माँजती होगी। यहाँ आकर रानी बन गई। लो उठो चलो; आज तुम्हारा गाना सुनूँगी। बहुत दिनों के बाद पंजे में आयी हो।

मनोरमा घर न जा सकी। भोजन करके भावज के साथ लेटी। बड़ी रात तक दोनों में बातें होती रहीं। आखिर भाभी को नींद आ गई; पर मनोरमा की आँखों में नींद कहाँ? वह तो पहले ही सो चुकी थी। वही स्वप्न उनके मस्तिष्क में चक्कर लगा रहा था। वह बार-बार सोचती थी, इस स्वप्न का आशय क्या यही है कि राजा साहब से विवाह करके सचमुच अपना भाग्य पलट रही हूँ? क्या वह प्रेम छोड़कर धन के पीछे दौड़ी जा रही है? वह प्रेम कहाँ है, जिसे उसने छोड़ दिया है? उसने तो उसे पाया ही नहीं। वह जानती है कि उसे कहाँ पा सकती है; पर पाए कैसे? वह वस्तु तो उसके हाथ से निकल गयी। वह मन में कहने लगी–बाबूजी, तुमने कभी मेरी ओर आँख उठाकर देखा है? नहीं, मुझे इसकी लालसा रह ही गई। तुम दूसरों के लिए मरना जानते हो, अपने लिए जीना भी नहीं जानते। तुमने एक बार मुझे इशारा भी कर दिया होता, तो मैं दौड़कर तुम्हारे चरणों में लिपट जाती। इस धन-दौलत पर लात मार देती, इस बन्धन को कच्चे धागे की भाँति तोड़ देती, लेकिन तुम विद्वान होकर भी इतने सरल हृदय हो! इतने अनुरक्त होकर भी इतने विरक्त! तुम समझते हो, तुम्हारे मन का हाल नहीं जानती? मैं सब जानती हूँ, एक-एक अक्षर जानती हूँ लेकिन क्या करूँ? मैंने अपने मन के भाव उससे अधिक प्रकट कर दिये थे, जितना मेरे लिए उचित था। मैंने बेशर्मी तक की लेकिन तुमने मुझे न समझा, या समझने की चेष्टा ही न की। अब तो भाग्य मुझे उसी ओर लिये जा रहा है, जिधर मेरी चिता बनी हुई है। उसी चिता पर बैठने जाती हूँ। यही हृदय-दाह मेरी चिता होगी ओर यही स्वप्न-संदेश मेरे जीवन का आधार होगा। प्रेम से मैं वंचित हो गई और अब मुझे सेवा ही से अपना जीवन सफल करना होगा। वह स्वप्न नहीं आकाशवाणी है! अभागिन इससे अधिक और क्या अभिलाषा रख सकती है?

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