उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
यही सोचते-सोचते वह लेटे-लेटे यह गीत गाने लगी–
करूँ क्या, प्रेम समुद्र अपार!
स्नेह सिन्धु में मग्न हुई मैं, लहरें रही हिलोर,
हाथ न आये तुम जीवन धन, पाया कहीं न छोर,
करूँ क्या, प्रेम समुद्र अपार!
झूम-झूमकर जब इठलायी सुरभित स्निग्ध समीर,
नभ मंडल में लगा विचरने मेरा हृदय अधीर।
करूँ, क्या, प्रेम समुद्र अपार।
२१
हुक्म के इशारों पर नाचनेवाले गुरुसेवक सिंह ने जब चक्रधर को जेल के दंगे के इलज़ाम से बरी कर दिया, तो अधिकारी मंडल में सनसनी-सी फैल गई। गुरुसेवक से ऐसे फ़ैसले की किसी को आशा न थी। फ़ैसला क्या था, जिसका एक-एक शब्द वात्सल्य के रस में सराबोर था। जनता में धूम मच गई। ऐसे न्यायवीर और सत्यवादी प्राणी विरले ही होते हैं, सबके मुँह से यही बात निकलती थीं। शहर के कितने ही आदमी तो गुरुसेवक के दर्शनों को आये और यह कहते हुए लौटे कि यह हाकिम नहीं, साक्षात् देवता हैं। अधिकारियों ने सोचा था, चक्रधर को ४-५ साल जेल में सड़ाएँगे, लेकिन अब तो खूँटा ही उखड़ गया, उछलें किस बिरते पर? चक्रधर इलज़ाम से बरी ही न हुए बल्कि उनकी पहली सज़ा भी एक साल घटा दी गई।
मिस्टर जिम तो ऐसा ज़ामे से बाहर हुए कि बस चलता, तो गुरुसेवक को गोली मार देते। और कुछ न कर सके, तो चक्रधर को तीसरे ही दिन आगरे भेज दिया, लेकिन ईश्वर न करें कि किसी पर हाकिम की टेढ़ी निगाह हो। चक्रधर की मियाद घटा दी गई, लेकिन कर्मचारियों को सख़्त ताक़ीद कर दी गई थी कि कोई क़ैदी उनसे बोलने तक न पाए, उनके कमरे के द्वार तक भी न जाने पाए, यहाँ तक कि कोई कर्मचारी भी उनसे न बोले। साल भर में दस साल की क़ैद का मजा चखाने की हिकमत सोच निकाली गई। मज़ा यह कि इस धुन में चक्रधर को कोई काम भी न दिया गया। बस, आठों पहर उसी चार हाथ लम्बी और तीन हाथ चौड़ी कोठरी में पड़े रहो।
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