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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


यही विचित्र दृश्य देखते-देखते मनोरमा की आँखें खुल गईं। उसकी आँखों से अभी तक आँसू बह रहे थे। सामने उसकी भावज खड़ी कह रही थी–घर में चलो बीवी!  मुझसे क्यों इतना भागती हो? क्या मैं कुछ छीन लूँगी? और गुरुसेवक लैम्प के सामने बैठे तज़वीज़ लिख रहे थे। मनोरमा ने भावज से पूछा–भाभी, क्या मैं सो गई थी? अभी तो शाम हुई हैं।

गुरुसेवक ने कहा–शाम नहीं हुई है, बारह बज रहे हैं।

मनोरमा–तो आपने तजवीज लिख डाली होगी?

गुरुसेवक-–बस, ज़रा देर में खत्म हुई जाती है।

मनोरमा ने काँपते हुए स्वर में कहा–आप यह तज़वीज़ फाड़ डालिए।

गुरुसेवक ने बड़ी-बड़ी आँखें करके पूछा–क्यों, फाड़ क्यों डालूँ?

मनोरमा–यों ही!  आपने इस मुकद्दमे का ज़िक्र ऐसे बेमौके कर दिया कि राजा साहब नाराज़ हो गए होंगे। मुझे चक्रधर से कुछ रिश्वत तो लेनी नहीं है। वह तीन वर्ष की जगह तीस वर्ष क्यों न जेल में पड़े रहें, पुण्य और पाप आपके सिर। मुझसे कोई मतलब नहीं।

गुरुसेवक–नहीं मनोरमा, मैं अब यह तज़वीज़ नहीं फाड़ सकता। बात यह है कि मैंने पहले ही दिल में एक बात स्थित कर ली थी, और सारी शहादतें मुझे उसी रंग में रँगी नज़र आती थीं। सत्य की मैंने तलाश न की थी, तो सत्य मिलता कैसे? अब मालूम हुआ कि पक्षपात क्योंकर लोगों की आँखों पर पर्दा डाल देता है। अब जो सत्य की इच्छा से बयानों को देखता हूँ, तो स्पष्ट मालूम होता कि चक्रधर बिलकुल निर्दोष हैं। जान-बूझकर अन्याय न करूँगा।

मनोरमा–आपने राजा साहब की त्योरियाँ देखीं?

गुरुसेवक–हाँ, खूब देखीं, पर उनकी अप्रसन्नता के भय से अपनी तज़वीज़ नहीं फाड़ सकता। यह पहली तज़वीज़ है, जो मैंने पक्षपात रहित होकर लिखी है और जितना संतोष आज मुझे अपने फैसले पर है, उतना और कभी न हुआ था। अब तो कोई लाख रुपये भी दे, तो भी इसे न फाड़ूँ।

मनोरमा–अच्छा, तो लाइए, मैं फाड़ दूँ।

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