उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
यह कहकर राजा साहब ने मनोरमा का हाथ आहिस्ता से पकड़ लिया और उसे मोटर की तरफ़ खींचा। मनोरमा ने एक झटके से अपना हाथ छुड़ा लिया और त्योरियाँ बदलकर बोला–एक बार कह दिया कि मैं न जाऊँगी।
राजा–आखिर क्यों?
मनोरमा–अपनी इच्छा!
गुरुसेवक–हुज़ूर, यह मुझसे जबरदस्ती जेलवाले मुकद्दमे का फैसला लिखाने बैठी हुई हैं। कहती हैं, बिना लिखवाए न जाऊँगी।
गुरुसेवक ने तो यह बात दिल्लगी से कही थी, पर समयोचित बात उनके मुँह से कम निकलती थी। मनोरमा का मुँह लाल हो गया। समझी कि यह मुझे राजा साहब के सम्मुख गिराना चाहते हैं। तनकर बोली–हाँ, इसीलिए बैठी हूँ, तो फिर? आपको यह कहते हुए शर्म आनी चाहिए थी। एक निरपराध आदमी को आपके हाथों स्वार्थमय अन्याय से बचाने के लिए मेरी निगरानी की ज़रूरत है। क्या यह आपके लिए शर्म की बात नहीं है? अगर मैं समझती कि आप निष्पक्ष होकर फैसला करेंगे, तो मेरे बैठने की क्यों ज़रूरत होगी? आप मेरे भाई हैं, इसलिए मैं आपसे सत्याग्रह कर रही हूँ। आपकी जगह कोई दूसरा आदमी बाबूजी पर जान-बूझकर ऐसा घोर अन्याय करता, और अगर मेरा बस चलता, तो उसके हाथ कटवा लेती। चक्रधर की मेरे दिल में जितनी इज़्ज़त है, उसका आप लोग अनुमान नहीं कर सकते।
एक क्षण के लिए सन्नाटा छा गया। गुरुसेवक का मुँह नन्हा-सा हो गया, और राजा साहब तो मानों रो दिए। आखिर चुपचाप अपनी मोटर की ओर चले। जब वह मोटर पर बैठ गए, तो मनोरमा भी धीरे से उनके पास आई और स्नेह सिंचित नेत्रों से देखकर बोली–मैं कल आपके साथ अवश्य चलूँगी।
राजा ने सड़क की ओर ताकते हुए कहा–जैसी तुम्हारी खुशी।
मनोरमा–अगर इस मामले में सच्चा फैसला करने के लिए भैयाजी पर हाकिमों की अकृपा हुई, तो आपको भैयाजी के लिए कुछ फ़िक्र करनी पड़ेगी।
राजा–देखी जाएगी।
मनोरमा तनकर बोली–क्या कहा?
राजा–कुछ तो नहीं।
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