उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
मनोरमा–मैं बिना लिखवाए यहाँ से जाऊँगी ही नहीं। यही इरादा करके आज आयी हूँ।
गुरुसेवक–ज़रा घर में जाकर लोगों से मिल आओ। शिकायत करती थीं कि अभी से हमें भूल गई।
मनोरमा–टालमटोल न कीजिए। मैं सब सामान यहीं लाये देती हूँ। आपको इसी वक़्त लिखना पड़ेगा।
गुरुसेवक–तो तुम कब तक बैठी रहोगी? फ़ैसला लिखना कोई मुँह का कौर थोड़े ही है।
मनोरमा–आधी रात तक खत्म हो जाएगा? आज न होगा, कल होगा? मैं फ़ैसला पढ़कर ही यहाँ से जाऊँगी। तुम दिल से चक्रधर को निर्दोष मानते हो, केवल स्वार्थ और भय तुम्हें दुविधा में डाले हुए हैं! मैं देखना चाहती हूँ कि तुम कहाँ तक सत्य का निर्वाह करते हो।
सहसा दूसरी मोटर आ पहुँची। इस पर राजा साहब बैठे हुए थे। गुरुसेवक बड़े तपाक से उन्हें लेने दौड़े। राजा ने उनकी ओर विशेष ध्यान न दिया। मनोरमा के पास आकर बोले–तुम्हारे घर से चला आ रहा हूँ। वहाँ पूछा तो मालूम हुआ–कहीं गयी होः पर यह किसी को न मालूम था कि कहाँ। वहाँ से पार्क गया, पार्क से चौक पहुँचा, सारे ज़माने की खाक छानता हुआ यहाँ पहुँचा हूँ। मैं कितनी बार कह चुका हूँ कि घर से चला करो, तो ज़रा बता दिया करो।
मनोरमा–मैंने समझा था, आपके आने के वक़्त तक लौट आऊँगी।
राजा–खैर, अभी कुछ ऐसी देर नहीं हुई। कहिए, डिप्टी साहब, मिज़ाज़ तो अच्छे हैं? कभी-कभी भूलकर हमारी तरफ़ भी आ जाया कीजिए। (मनोरमा से) चलो, नहीं तो शायद ज़ोर से पानी आ जाये।
मनोरमा–मैं तो आज न जाऊँगी।
राजा–नहीं-नहीं, ऐसा न कहो। वे लोग हमारी राह देख रहे होंगे।
मनोरमा–मेरा तो जाने को जी नहीं चाहता।
राजा–तुम्हारे बग़ैर सारा मज़ा किरकिरा हो जाएगा, और मुझे बहुत लज्जित होना पड़ेगा। मैं तुम्हें ज़बरदस्ती ले जाऊँगा।
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