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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


गुरुसेवक–जब उन्हें मालूम था कि मेरे बिगड़ने से उपद्रव की सम्भावना है, तो मेरे ख़याल में उन्हें चुप ही रह जाना चाहिए था।

मनोरमा–और मैं कहती हूँ कि उन्होंने जो कुछ किया, वही उनका धर्म था। आत्मसम्मान की रक्षा हमारा सबसे पहला धर्म है। आत्मा की हत्या करके अगर स्वर्ग भी मिले, तो वह नरक हैं। आपको अपने फैसले में साफ़-साफ़ लिखना चाहिए कि बाबूजी बेकसूर हैं। आपको सिफ़ारिश करना चाहिए कि एक महान् संकट में अपने प्राणों को हथेली पर लेकर, जेल के कर्मचारियों की जान बचाने के बदले में उनकी मियाद घटा दी जाए। सरकार अपील करे, इससे आपको कोई प्रयोजन नहीं। आपका कर्तव्य वही हैं, जो मैं कह रही हूँ।

गुरुसेवक ने अपनी नीचता को मुस्कुराहट से छिपाकर कहा–आग में कूद पड़ूँ?

मनोरमा–धर्म की रक्षा के लिए आग मे कूद पड़ना कोई नई बात नहीं है। आखिर आपको किस बात का डर है? यही न, कि आपसे आपके अफ़सर नाराज हो जाएँगे? आप शायद डरते हों कि कहीं आप अलग न कर दिए जाएँ। इसकी ज़रा भी चिन्ता न कीजिए!  मैं आशा करती हूँ...मुझे विश्वास है कि आपका नुकसान न होने पाएगा।

गुरुसेवक अपनी स्वार्थपरता पर झेंपते हुए बोले–नौकरी की मुझे परवाह नहीं है मनोरमा!  मैं इन लोगों के कमीनेपन से डरता हूँ। इनको फ़ौरन ख़याल होगा कि मैं भी उसी टुकड़ी में मिला हुआ हूँ, और आश्चर्य नहीं कि मैं भी किसी जुल्म में फाँस दिया जाऊँ। मुझे इनके साथ मिलने-जुलने से इनकी नीचता का कई बार अनुभव हो चुका है। इनमें उदारता और सज्जनता नाम को भी नहीं होती। बस, अपने मतलब के यार हैं। इनका धर्म, इनकी राजनीति, इनका न्याय, इनकी सभ्यता केवल एक शब्द में आ जाती है, और वह शब्द है– ‘स्वार्थ’। मैं सब कुछ सह सकता हूँ, जेल के कष्ट नहीं सह सकता। जानता हूँ, यह मेरी कमज़ोरी है पर क्या करूँ? मुझमें तो इतना साहस नहीं।

मनोरमा–भैयाजी, आपकी यह सारी शंकाएँ निर्मूल हैं। मैं आपका ज़रा भी नुकसान न होने दूँगी। गवाहों के बयान हो गए कि नहीं?

गुरुसेवक–हाँ, हो गए। अब तो केवल फ़ैसला सुनाना है।

मनोरमा–तो लिखिए, लाऊँ कलम-दवात?

गुरुसेवक–लिख लूँगा, जल्दी क्या है?

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