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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


सहसा मनोरमा मोटर से उतरकर उनके समीप ही कुर्सी पर बैठ गई।

गुरुसेवक ने पूछा–कहाँ से आ रही हो?

मनोरमा–घर ही से आ रही हूँ। जेलवाले मुकद्दमें में क्या हो रहा है?

गुरुसेवक–अभी तो कुछ नहीं हुआ। गवाहों के बयान हो रहे हैं।

मनोरमा–बाबूजी पर ज़ुर्म साबित हो गया?

गुरुसेवक–हो भी गया और नहीं भी हुआ।

मनोरमा–मैं नहीं समझी।

गुरुसेवक–इसका मतलब यह है कि ज़ुर्म का साबित होना या न होना दोनों बराबर है, और मुझे मुलज़िमों को सज़ा करनी पड़ेगी। अगर बरी कर दूँ, तो सरकार अपील करके उन्हें फिर सज़ा देगी, हाँ, मैं बदनाम हो जाऊँगा। मेरे लिए यह आत्म-बलिदान का प्रश्न है, सारी देवता मंडली मुझ पर कुपति हो जायेगी।

मनोरमा–तुम्हारी आत्मा क्या कहती है?

गुरुसेवक–मेरी आत्मा क्या कहेगी? मौन है।

मनोरमा–मैं यह न मानूँगी। आत्मा कुछ-न-कुछ ज़रूर कहती है, अगर उससे पूछा जाए। कोई माने या न माने, यह उसका अख़्तियार है। तुम्हारी आत्मा भी अवश्य तुम्हें सलाह दे रही होगी और उसकी सलाह मानना तुम्हारा धर्म है। बाबूजी के लिए सज़ा का दो एक साल बढ़ जाना कोई बात नहीं, वह निरपराध हैं और यह विश्वास उन्हें तस्क़ीन देने को काफ़ी है, लेकिन तुम कहीं के न रहोगे। तुम्हारे देवता तुमसे भले ही सन्तुष्ट हो जाएँ, पर तुम्हारी आत्मा का सर्वनाश हो जाएगा।

गुरुसेवक–चक्रधर बिलकुल बेकसूर तो नहीं हैं। पहले-पहल जेल के दारोग़ा पर वही गर्म थे। वह उस वक़्त ज़ब्त कर जाते, तो यह फ़साद न खड़ा होता। यह अपराध उनके सिर से कैसे दूर होगा?

मनोरमा–आपके कहने का यह मतलब है कि वह गालियाँ खाकर चुप रह जाते? क्यों?

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