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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


चक्रधर दो महीने अस्पताल में पड़े रहे। दवा दर्पण तो जैसी हुई, वही जानते होंगे, लेकिन जनता की दुआओं में ज़रूर असर था। हज़ारों आदमी नित्य उनके लिए ईश्वर से प्रार्थना करते थे और मनोरमा को तो दान, व्रत और तप के सिवाय और कोई काम न था। जिन बातों को वह पहले ढकोसला समझती थी, उन्हीं बातों में अब उसकी आत्मा को शान्ति मिलती थी। पहली बार उसे प्रार्थना-शक्ति का विश्वास हुआ। कमज़ोरी ही में हम लकड़ी का सहारा लेते हैं।

चक्रधर तो अस्पताल में पड़े थे, इधर उन पर नया अभियोग चलाने की तैयारियाँ हो रही थीं। ज्यों ही वह चलने-फिरने लगे, उनपर मुकद्दमा चलने लगा। जेल के भीतर ही इजलाम होने लगा। ठाकुर गुरुसेवक सिंह आजकल डिप्टी मैजिस्ट्रेट थे। उन्हीं को यह मुकद्दमा सुपुर्द किया गया।

हमारे ठाकुर साहब बड़े ज़ोशीले आदमी थे। यह जितने जोश से किसानों का संगठन करते थे, अब उतने ही जोश से क़ैदियों को सज़ाएँ भी देते थे। पहले उन्होंने निश्चय किया था कि सेवा में ही अपना जीवन बिता दूँगा, लेकिन चक्रधर की दशा देखकर आँखें खुल गईं। समझ गए कि इन परिस्थितियों में सेवा-कार्य टेढ़ी खीर है। जीवन का उद्देश्य यही तो नहीं है कि हमेशा एक पैर जेल में रहे, हमेशा प्राण सूली पर रहे, खुफिया पुलिस हमेशा ताक में बैठी रहे, भगवद्गीता का पाठ करना मुश्किल हो जाए। यह तो न स्वार्थ हैं, न परमार्थ, केवल आग में कूदना है तलवार पर गर्दन रखना है सेवा-कार्य को दूर से सलाम किया और सरकार के सेवक बन बैठे। खानदान अच्छा था ही, सिफ़ारिश भी काफी थी, जगह मिलने में कोई कठिनाई न हुई। अब वह बड़े ठाठ से रहते थे। रहन-सहन भी बदल डाला, खान-पान भी बदल डाला। उस समाज में घुलमिल गए, जिसकी वाणी में, वेश में, व्यवहार में पराधीनता का चोखा रंग चढ़ा होता है। उन्हें लोग अब ‘साहब’ कहते हैं। ‘साहब’ हैं भी पूरे ‘साहब’; बल्कि ‘साहब’ से भी दो अंगुल ऊँचे। किसी को छोड़ना तो जानते ही नहीं। कानून की मंशा चाहे कुछ हो, कड़ी-से-कड़ी सजा देना उनका काम है। उनका नाम सुनकर बदमाशों की नानी मर जाती है। विधाताओं को उन पर जितना विश्वास है, उतना और किसी हाकिम पर नहीं, इसीलिए यह मुकद्दमा उनके इज़लास में भेजा गया है।

ठाकुर साहब सरकारी काम में ज़रा भी रू-रिआयत न करते थे; लेकिन यह मुकद्दमा पाकर वह धर्मसंकट में पड़ गए। धन्नासिंह और अन्य अपराधियों के विषय में कोई चिन्ता न थी, उनकी मियाद बढ़ा सकते थे, काल कोठरी में डाल सकते थे, सेशन सुपुर्द कर सकते थे, पर चक्रधर को क्या करें!  अगर सज़ा देते हैं, तो जनता में मुँह दिखाने लायक नहीं रहते। मनोरमा तो शायद उनका मुँह न देखे। छोड़ते हैं, तो अपने समाज में तिरस्कार होता है, क्योंकि वहाँ सभी चक्रधर से खार खाए बैठे थे। ठाकुर साहब के कानों में किसी ने यह बात भी डाल दी थी कि इसी मुकद्दमे पर तुम्हारे भविष्य का बहुत कुछ दारोमदार है।

मुकद्दमें को पेश हुए आज तीसरा दिन था। गुरुसेवक बरामदे में बैठे सावन की रिमझिम वर्षा का आनन्द उठा रहे थे। आकाश में मेघों की घुड़दौड़-सी हो रही थी। घुड़दौड़ नहीं, संग्राम था। एक दल आगे से भागा चला जाता था। और उसके पीछे विजेताओं का काल दल तोपें दाग़ता, भाले चमकाता, गम्भीर भाव से बढ़ रहा था, मानों भगोड़ों का पीछा करना अपनी शान के खिलाफ समझता हो।

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