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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


लौंगी–तुम्हारे दुश्मन को कुछ हो बेटी, तुम तो कभी घड़ी भर चैन न पाती थीं। तुम्हें गोद में लिये रात भर भगवान् का नाम लिया करती थी।

सहसा मनोरमा के मन में एक बात आयी। उसने बाहर आकर मोटर तैयार करायी और दम-के-दम में राजभवन की ओर चली। राजा साहब इसी तरफ़ आ रहे थे। मनोरमा को देखा, तो चौंके। मनोरमा घबरायी हुई थी।

राजा–तुमनें क्यों कष्ट किया? मैं तो आ रहा था।

मनोरमा–आपको जेल के दंगे की ख़बर मिली?

राजा–हाँ, मुंशी वज्रधर अभी कहते थे।

मनोरमा–मेरे बाबूजी को गहरा घाव लगा है।

राज–हाँ, यह भी सुना।

मनोरमा–तब भी आपने उन्हें जेल से बाहर अस्पताल में लाने के लिए कार्रवाई नहीं की? आपका हृदय बड़ा कठोर है।

राजा ने कुछ चिढ़कर कहा–तुम्हारे जैसा हृदय कहाँ से लाऊँ!

मनोरमा–मुझसे माँग क्यों नहीं लेते? बाबूजी को बहुत गहरा घाव लगा है, और अगर यत्न न किया गया, तो उनका बचना कठिन है। जेल में जैसा इलाज होगा, आप जानते ही हैं। न कोई आगे, न कोई पीछे; न मित्र, न बन्धु। आप साहब को एक खत लिखिए कि बाबूजी को अस्पताल में लाया जाये।

राजा–साहब मानेंगे?

मनोरमा–इतनी ज़रा-सी बात न मानेंगे?

राजा–न जाने दिल में क्या सोचें।

मनोरमा–आपको अगर बहुत मानसिक कष्ट हो रहा हो, तो रहने दीजिए। मैं खुद साहब से मिल लूँगी।

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