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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


लौंगी–हाँ, तुमने तो कारूँ का खजाना घर में गाड़ रखा है। इन बातों से अब काम न चलेगा। अब तो जो होनी थी, हो चुकी। राम का नाम लेकर ब्याह करो। पुरोहित को बुलाकर साइत-सगुन पूछ-ताछ लो और लगन भेज दो। एक ही लड़की है, दिल खोलकर काम करो।

मुंशीजी को अपनी साँसत का पुरस्कार मिल गया। मारे खुशी के बगलें बजाने लगे। विरोध की अन्तिम क्रिया हो गई।

आज ही से विवाह की तैयारियाँ होने लगीं। दीवान साहब स्वभाव के कृपण थे, कम-से-कम खर्च में काम निकालना चाहते थे, लेकिन लौंगी के आगे उनकी एक न चलती थी। उसके पास रुपये न जाने कहाँ से निकलते आते थे, मानो किसी रसिक के प्रेमोद्गार हों। तीन महीने तैयारियों में गुज़र गए। विवाह का मुहूर्त निकट आ गया।

सहसा एक दिन शाम को ख़बर मिली कि जेल में दंगा हो गया और चक्रधर के कन्धे में गहरा घाव लगा है। बचना मुश्किल है।

मनोरमा के विवाह की तैयारियाँ तो हो ही रही थीं और यों भी देखने में वह बहुत खुश नज़र आती थीं; पर उसका हृदय सदैव रोता रहता था। कोई अज्ञात भय, कोई अलक्षित वेदना, कोई अतृप्त कामना, कोई गुप्त चिन्ता, हृदय को मथा करती थी। अन्धों की भाँति इधर-उधर टटोलती थी, पर न चलने का मार्ग मिलता था, न विश्राम का आधार। उसने मन में एक बात निश्चय की थी और उसी में संतुष्ट रहना चाहती थी, लेकिन कभी-कभी वह जीवन इतना शून्य, इतना अँधेरा, इतना नीरस मालूम होता कि घंटों वह मूर्छित-सी बैठी रहती, मानो कहीं कुछ नहीं है, अनन्त आकाश में केवल वही अकेली है?

यह भयानक समाचार सुनते ही मनोरमा को हौलदिल-सा हो गया। आकर लौंगी से बोली–लौंगी अम्माँ, मैं क्या करूँ? बाबूजी को देखे बिना अब नहीं रहा जाता। क्यों अम्मा, घाव अच्छा हो जायेगा न?

लौंगी ने करुण नेत्रों से देखकर कहा–अच्छा क्यों न होगा, बेटी!  भगवान् चाहेंगे, तो जल्द अच्छा हो जायेगा।

लौंगी मनोरमा के मनोभावों को जानती थी। उसने सोचा, इस अबला को कितना दुःख है!  मन-ही-मन तिलमिलाकर रह गई। हाय!  चारे पर गिरनेवाली चिड़िया को मोती चुगाने की चेष्टा की जा रही है। तड़प-तड़पकर पिंजड़े में प्राण देने के सिवा वह और क्या करेगी!  मोती में चमक है, वह अनमोल है, लेकिन उसे कोई खा तो नहीं सकता। उसे गले में बाँध लेने से क्षुधा तो न मिटेगी।

मनोरमा ने फिर पूछा–भगवान सज्जन लोगों को क्यों इतना कष्ट देते हैं, अम्मा? बाबूजी जैसा सज्जन दूसरा कौन होगा। उनको भगवान इतना कष्ट दे रहे हैं!  मुझे कभी कुछ नहीं होता, कभी सिर भी नहीं दुखता। मुझे क्यों कभी कुछ नहीं होता, अम्माँ?

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