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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


दूसरा क़ैदी–एक-एक की हड्डियाँ तोड़ दो। दो-दो चार-चार साल और सही। अभी कौन सुख भोग रहे हैं, जो सजा को डरें? आखिर घूम घामके यहीं तो फिर आना है।

चक्रधर–मेरे देखते तो यह अनर्थ न हो पाएगा। हाँ, मर जाऊँ तो जो चाहे करना!

धन्नासिंह–अगर ऐसे बड़े धर्मात्मा हो, तो इनको क्यों नहीं समझाया? देखते नहीं हो, कितनी साँसत होती है। तुम्हीं कौन बचे हुए हो। कुत्तों को भी मारते दया आती है। क्या हम कुत्तों से भी गए-बीते हैं?

इतने में सदर फाटक पर शोर मचा। जिला-मैजिस्ट्रेट मिस्टर जिम सशस्त्र पुलिस के सिपाहियों और अफ़सरों के साथ आ पहुँचे थे। दारोग़ाजी ने अन्दर आते वक़्त किवाड़ बन्द कर लिये थे, जिससे कोई क़ैदी भागने न पाए। यह शोर सुनते ही चक्रधर समझ गया कि पुलिस आ गई। बोले–अरे भाई, क्यों अपनी जान के दुश्मन हुए हो। बन्दूकें रख दो और फौरन जाकर किवाड़ खोल दो। पुलिस आ गई।

धन्नासिंह–कोई चिन्ता नहीं। हम भी इन लोगों का वारा-न्यारा कर डालते हैं। मरते ही हैं, तो दो-चार को मार के मरें।

क़ैदियों ने फौरन संगीनें चढ़ायी और सबसे पहले धन्नासिंह दारोग़ाजी पर झपटा। क़रीब था कि संगीन की नोक उनके सीने में चुभे कि चक्रधर यह कहते हुए, ‘धन्नासिंह ईश्वर के लिए...दारोग़ाजी के सामने आकर खड़े हो गए। धन्नासिंह वार कर चुका था। चक्रधर के कन्धे पर संगीन का भरपूर हाथ पड़ा। आधी संगीन धँस गई। दाहिने हाथ से कन्धे को पकड़कर बैठ गए। क़ैदियों ने उन्हें गिरते देखा तो होश उड़ गये। आ-आकर उनके चारों तरफ़ खड़े हो गए। घोर अनर्थ की आशंका ने उन्हें स्तंभित कर दिया। भगत को चोट आ गई–ये शब्द उनकी पशु-वृत्तियों को दबा बैठे।

धन्नासिंह ने बन्दूक़ फेंक दी और फूट-फूटकर रोने लगा। मैंने भगत के प्राण लिए जिस भगत ने ग़रीबों की रक्षा करने के लिए सजा पाई, जो हमेशा उनके लिए अफ़सरों से लड़ने को तैयार रहता था, जो नित्य उन्हें अच्छे रास्ते पर ले जाने की चेष्टा करता था, जो उसके बुरे व्यवहारों को हँस-हँसकर सह लेता था वही भगत धन्नासिंह के हाथ ज़ख्मी पड़ा है। धन्नासिंह को कई क़ैदी पकड़े हुए हैं। ग्लानि के आवेश में वह बार-बार चाहता है कि अपने को उनके हाथों से छुड़ाकर वहीं संगीन अपनी छाती में चुभा ले लेकिन क़ैदियों ने इतने ज़ोर से जकड़ रखा है कि उसका कुछ बस नहीं चलता।

दारोग़ा ने मौक़ा पाया तो सदर फाटक की तरफ़ दौड़े कि उसे खोल दूँ। धन्नासिंह ने देखा कि यह हज़रत, जो सारे फ़िसाद की जड़ हैं, बेदाग़ बचे जाते हैं, तो उसकी हिंसक वृत्तियों ने इतना ज़ोर मारा कि एक ही झटके में वह क़ैदियों के हाथ से मुक्त हो गया और बन्दूक़ उठाकर उनके पीछे दौड़ा। चक्रधर के खून का बदला लेना जरूरी था। क़रीब था कि दारोग़ाजी पर फिर वार पड़े कि चक्रधर फिर सँभलकर उठे और एक हाथ से अपना कन्धा पकड़े, लड़खड़ाते हुए चले। धन्नासिंह ने उन्हें आते देखा, तो उसके पाँव रुक गए। भगत अभी जीते हैं, इसकी उसे इतनी खुशी हुई कि वह बन्दूक़ लेकर पीछे की ओर चला और उनके चरणों पर सिर रखकर रोने लगा। ऐसी सच्ची खुशी उसे अपने जीवन में कभी न हुई थी!

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