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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


क़ैदियों में खलबली पड़ गई। कुछ इधर-उधर से फावड़े कुदालें और पत्थर ला-लाकर लड़ने पर तैयार हो गए। मौक़ा नाज़ुक था। चक्रधर को बढ़ते देखकर उन सबने पत्थरों की वर्षा शुरू की। भीषण संग्राम होने लगा।

एकाएक चक्रधर ठिठक गए। ध्यान आ गया, स्थिति और भयंकर हो जाएगी। अभी सिपाही बन्दूक़ चलाना शुरू कर देंगे। लाशों के ढेर लग जाएँगे। अगर हिंसक भावों को दबाने का कोई मौक़ा हो सकता है, तो वह यही मौक़ा है। ललकारकर बोले–पत्थर न फेंको, पत्थर न फेंको? सिपाहियों के हाथों से बन्दूक छीन लो।

सिपाहियों ने संगीने चढ़ानी चाहीं, लेकिन उन्हें इसका मौक़ा न मिल सका। एक-एक सिपाही पर दस-दस क़ैदी टूट पड़े और दम-के-दम में उनकी बन्दूक़ें छीन लीं। सिपाहियों ने रौब के बल पर आक्रमण किया था। उन्हें विश्वास था कि कुन्दों की मार पड़ते ही क़ैदी भाग जाएँगे। अब उन्हें मालूम हुआ कि हम धोखे में थे। फिर वे एक साथ में नहीं, इधर-उधर बिखरे खड़े थे। इससे उनकी शक्ति और भी कम हो गई थी। उन पर आगे-पीछे, दाएँ-बाएँ चारों तरफ़ से चोट पड़ सकती थीं। संगीने चढ़ाकर भी वे किसी तरह न बच सकते थे। क़ैदियों में पिल पड़ना उनकी सबसे बड़ी भूल थी। उनके ऐसे हाथ-पाँव फूले, होश ऐसे ग़ायब हुए कि कुछ निश्चय न कर सके कि इस समय क्या करना चाहिए। क़ैदियों ने तुरन्त उनकी मुश्कें चढ़ी दीं और बन्दूकें ले-लेकर उनके सिर पर खड़े हो गये। यह सब कुछ पाँच मिनट में हो गया। ऐसा दाँव पड़ा कि वे लोग जो ज़रा देर पहले हेकड़ी जताते थे, क़ैदियों को पाँव की धूल समझते थे, अब उन्हीं क़ैदियों के सामने खड़े दया-प्रार्थना कर रहे थे, घिघियाते थे, मत्थे टेकते थे और रोते थे। दारोग़ाजी की सूरत तो तसवीर खींचने योग्य थी। चेहरा फ़क, हवाइयाँ उड़ी हुईं, थर-थर काँप रहे थे कि देखें, जान बचती है या नहीं।

क़ैदियों ने देखा, इस वक़्त हमारा राज्य है, तो पुराने बदले चुकाने पर तैयार हो गए। धन्नासिंह लपका हुआ दारोग़ा के पास आया और ज़ोर से धक्का देकर बोला–क्यों खाँ साहब, उखाड़ लूँ दाढ़ी के एक-एक बाल?

चक्रधर–हट जाओ।

धन्नासिंह–मरना तो है ही, अब इन्हें क्यों छोड़ें?

चक्रधर–हम कहते हैं, हट जाओ, नहीं तो अच्छा न होगा।

धन्नासिंह–अच्छा हो चाहे बुरा, हमारे साथ इन लोगों ने जो सलूक किए है, उसका मज़ा चखाए बिना न छोड़ेंगे।

एक क़ैदी–हमारी जान तो जानी ही है, पर इन लोगों को न छोड़ेंगे।

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