लोगों की राय

उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

320 पाठक हैं

राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


चक्रधर का जीवन कभी इतना आदर्श न था। क़ैदियों को मौक़ा मिलने पर धर्म-कथाएँ सुनाते, ईश्वर की दया और क्रोध का स्वरूप दिखाते। ईश्वर अपने भक्तों से कितना प्रसन्न होता है। उनके पापों को कितनी दया से क्षमा कर देता है। ईश्वर-भक्तों की कथा इसका उज्ज्वल प्रमाण थी। केवल पश्चात्ताप का भाव मन में आना चाहिए। अजामिल और बाल्मीकि तर गए, तो क्या तुम और हम न तरेंगे? इन कथाओं को क़ैदी लोग इतने चाव से सुनते, मानों एक-एक शब्द उनके हृदय पर अंकित हो जाता था; किन्तु इनका असर बहुत जल्दी मिट जाता था, इतनी जल्दी कि आश्चर्य होता था। उधर कथा हो रही है और उधर लात-मुक्के चल रहे हैं। कभी वे इन कथाओं पर अविश्वासपूर्ण टीकाएँ करते और बात हँसी में उड़ा देते। एक कहता–लो धन्नासिंह, अब हम लोग बैकुण्ठ चलेंगे, कोई डर नहीं है। भगवान् क्षमा कर ही देंगे, वहाँ खूब जलसा रहेगा। दूसरा कहता–धन्नासिंह, मैं तुझे न जाने दूँगा, ऊपर से ऐसा ढकेलूँगा कि हड्डियाँ टूट जाएँगी। भगवान् से कह दूँगा कि ऐसे पापी को बैकुण्ठ में रखोगे, तो तुम्हारे नरक में सियार लोटेंगे। तीसरा कहता–यार, वहाँ गाँजा मिलेगा कि नहीं? अगर गाँजे को तरसना पड़ा तो बैकुण्ठ ही किस काम का? बैकुण्ठ तो तब जानें कि वहाँ ताड़ी और शराब की नदियाँ हों। चौथा कहता–अजी यहाँ से बोरियों गाँजा और चरस लेते चलेंगे वहाँ के रखवाले क्या घूस न खाते होंगे? उन्हें कुछ भी दे-दिलाकर काम निकाल लेंगे। जब यहाँ जुटा लिया, तो वहाँ भी जुटा ही लेंगे। पर ऐसी अभक्तिपूर्ण आलोचनाएँ सुनकर भी चक्रधर हताश न होते थे। शनैः-शनैः उनकी भक्ति-चेतना स्वयं दृढ़ होती चली जाती थी। भक्ति की ऐसी शिक्षा उन्हें कदाचित् और कहीं न मिल सकती।

बलवान् आत्माएँ प्रतिकूल दशाओं ही में उत्पन्न होती हैं। कठिन परिस्थितियों में उनका धैर्य और साहस, उनकी सहृदयता और सहिष्णुता, उनकी बुद्धि और प्रतिभा अपना मौलिक रूप दिखाती है। आत्मोन्नति के लिए कठिनाइयों से बढ़कर कोई विद्यालय नहीं, कठिनाइयों ही में ईश्वर के दर्शन होते हैं और हमारी उच्चतम शक्तियाँ विकास पाती हैं। जिसने कठिनाइयों का अनुभव नहीं किया, उसका चरित्र बालू की भीत है, जो वर्षा के पहले ही झोंके में गिर पड़ती है। उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता। महान, आत्माएँ कठिनाइयों का स्वागत करती है,  उनसे घबराती नहीं, क्योंकि यहाँ आत्मोत्कर्षण के जितने मौके मिलते हैं, इतने और किसी दशा में नहीं मिल सकते। चक्रधर इस परिस्थिति को एक शिक्षार्थी की दृष्टि से देखते थे और विचलित न होते थे। उन्हें विश्वास था कि प्रकृति उन्हीं प्राणियों को परीक्षा में डालती है, जिनके द्वारा उसे संसार में कोई महान् उद्देश्य पूरा करना होता है।

इस भाँति कई महीने गुज़र गए। एक दिन संध्या समय चक्रधर दिन भर के कठिन परिश्रम के बाद बैठे संध्या कर रहे थे कि कई क़ैदी आपस में बातें करते हुए निकले–आज इस दारोग़ा की खबर लेनी चाहिए। देखो, गालियाँ दिया करता है, सीधे मुँह तो बात ही नहीं करता। बात-बात पर मारने दौड़ता है। हम भी तो आदमी हैं, कहाँ तक सहें!  अब आता ही होगा। ऐसा मारों कि जन्म भर को दाग़ हो जाए! यही न होगा कि साल-दो साल की मियाद और बढ़ जाएगी। बच्चा की आदत तो छूट जाएगी। चक्रधर इस तरह की बातें अकसर सुनते थे, इस लिए उन्होंने इस पर कुछ विशेष ध्यान न दिया; मगर भोजन के समय ज्योंही दारोग़ा साहब आकर खड़े हुए और एक क़ैदी को देर में आने के लिए मारने दौड़े कि कई क़ैदी चारों तरफ़ से दौड़ पड़े और ‘मारो-मारो’ का शोर मच गया। दारोग़ाजी की सिट्टी-पिट्टी भूल गई।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book