उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
चक्रधर को चक्की पीसने का काम दिया गया। प्रातःकाल गेहूँ तौलकर दे दिया जाता ओर संध्या तक उसे पीसना ज़रूरी था। कोई उज्र या बहाना न सुना जाता था। बीच में केवल एक बार खाने की छुट्टी मिलती थी। इसके बाद फिर चक्की में जुत जाना पड़ता था। वह बराबर सावधान रहते थे कि किसी कर्मचारी को उन्हें कुछ कहने का मौक़ा न मिले, लेकिन गालियों में बात करना जिनकी आदत हो, उन्हें कोई क्योंकर रोकता? प्रायः रोज़ फटकार और गालियाँ खानी पड़ती थीं। और उनकी रातें सोने के बदले रोने और दिल को शान्त करने में कट जाती थी।
किन्तु विपत्ति का अन्त यहीं तक न था। क़ैदी लोग उन पर ऐसी अश्लील, ऐसी अपमानजनक बातें कसते थे कि क्रोध और घृणा से उनका रक्त खौल उठता, पर लहू का घूँट पीकर रह जाते थे। न कोई शिकायत सुननेवाला था, न घाव पर मरहम रखनेवाला। सबसे बड़ी मुसीबत का सामना रात को होता था, जब दरवाज़े बन्द हो जाते थे और अपने आत्मसम्मान की रक्षा के लिए बाहुबल के सिवा कोई साधन न होता था। उनके कमरे में पाँच क़ैदी रहते थे। उनमें धन्नासिंह नाम का एक ठाकुर भी था, बहुत ही बलिष्ठ और गज़ब का शैतान। वह उनका नेता था, वे सब इतना शोर मचाते, इतनी गन्दी, घृणोत्पादक बातें करते कि चक्रधर को कानों में उँगलियाँ डालनी पड़ती थीं। उन्हें प्रतिक्षण यह भय रहता था कि ये सब न जाने कब मेरी दुर्गति कर डालें। रात को जब तक वे सो न जाएँ, वह खुद न सोते थे। हुक्म तो यह था कि कोई क़ैदी तम्बाकू भी न पीने पाए, पर यहाँ गाँजा, भाँग, शराब, अफ़ीम–यहाँ तक कि कोकिन भी न जाने किस तिकड़म से पहुँच जाते थे। नशे में वे इतने उद्दंड हो जाते, मानो नर तनधारी राक्षस हों।
धीरे-धीरे चक्रधर को इन आदमियों से सहानुभूति होने लगी। सोचा, इन परिस्थितियों में पड़कर ऐसा कौन प्राणी है, जिसका पतन न हो जाएगा? बहुत दिनों से सेवा-कार्य करते रहने पर भी पहले उनको क़ैदियों से मिलने-जुलने में झिझक होती थी। उनकी गन्दी बातें सुनकर वह घृणा से मुँह फेर लेते थे। उन्हें सभी श्रेणी के मनुष्यों से साबिका पड़ चुका था; पर ऐसे निर्लज्ज, गालियाँ खाकर हँसनेवाले, दुर्व्यसनों में डूबे हुए, मुहँफट, बेहया आदमी उन्होंने अब तक न देखे थे, उन्हें गालियों की लाज थी, न मार का भय। कभी-कभी उन्हें ऐसी-ऐसी अस्वाभाविक ताड़नाएँ मिलती थीं कि चक्रधर के रोएँ खड़े हो जाते थे, मगर मज़ाल कि किसी क़ैदी की आँखों में आँसू आए। वह व्यापार देख-देखकर चक्रधर अपने कष्टों को भूल जाते थे। कोई क़ैदी उन्हें गाली देता, तो चुप हो जाते इस ताक में रहते थे कि कब इसके साथ सज्जनता दिखाने का अवसर मिले।
तहसीलदार साहब का हुक्काम से मेल-जोल था ही। रियासत में नौकर हुए थे, यह मेल-जोल और भी बढ़ गया था। उन लोगों को देहातों से ला-लाकर कोई-न-कोई सौगात भेजते रहते थे। उन मुलाहज़े की बदौलत उन्हें समय-समय पर चक्रधर के पास खाने-पीने की चीज़ें भेजने में कोई दिक्कत न होती थी। चक्रधर इन चीज़ों को पाते ही क़ैदियों में बाँट देते। ऐसी लूट मचती कि कभी-कभी उनको अपने मुँह में ज़रा-सा भी रखने की नौबत न आती। जेल के छोटे कर्मचारी तो चाहते थे कि हमीं सब कुछ हड़प कर जाएँ, इसलिए जब वे चीज़ें उनके हाथ न लगकर क़ैदियों को मिल जाती थीं, तो वे इसकी कसर चक्रधर से निकालते थे–काम लेने में और भी सख्ती करते, ज़रा-ज़रा-सी बात पर गालियाँ देने पर तैयार हो जाते, लेकिन क़ैदियों पर चक्रधर की सज्जनता का कुछ-न-कुछ असर अवश्य होता था। चक्रधर के साथ उनका बर्ताव कुछ नम्र होता जाता था। जहाँ चक्रधर की हँसी उड़ाते थे, उन्हें मुँह चिढ़ाते थे, वहाँ अब उनकी बातों की ओर ध्यान देने लगे। आत्मा को आत्मा ही की आवाज़ जगा सकती है।
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