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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


मुंशी–ज़नाब, शुभ काम में सोच-विचार कैसा? भगवान जोड़ी सलामत रखें।

सहसा बाग़ में बैंड बजने लगा और राजा के कर्मचारियों का समूह इधर-उधर से आ-आकर राजा साहब को मुबारकबाद देने लगा। दीवान साहब सिर झुकाए खड़े थे। न कुछ कहते बनता था, न सुनते। दिल में मुंशीजी को हज़ारों गालियाँ दे रहे थे कि इसने मेरे साथ कैसी चाल चली। आखिर यह सोचकर दिल को समझाया कि लौंगी से सब हाल कह दूँगा। भाग्य में यही बदा था, तो मैं करता क्या? मनोरमा भी तो खुश है।

बारह बजते-बजते मेहमान लोग सिधारे। राजा साहब के पाँव ज़मीन पर न पड़ते थे। सारे आदमी सो रहे थे; पर वह बगीचे में हरी-हरी घास पर टहल रहे थे। चैत्र की शीतल, सुखद, मन्द समीर; चन्द्रमा की शीतल, सुखद मन्द छटा और बाग़ की शीतल, सुखद, मन्द सुगन्ध में उन्हें कभी ऐसा उल्लास, ऐसा आनन्द न प्राप्त हुआ था। मन्द समीर में मनोरमा थी, चन्द्र की छटा में मनोरमा थी, शीतल सुगन्ध में मनोरमा थी, और उनके रोम-रोम में मनोरमा थी। सारा विश्व मनोरमामय हो रहा था।

१८

चक्रधर को जेल में पहुँचकर ऐसा मालूम हुआ कि एक नई दुनिया में आ गए। जहाँ मनुष्य-ही-मनुष्य हैं, ईश्वर नहीं। उन्हें ईश्वर के दिये हुए वायु और प्रकाश के मुश्किल से दर्शन होते थे। मनुष्य के रचे हुए संसार में मनुष्य की कितनी हत्या हो सकती है, इसका उज्ज्वल प्रमाण सामने था। भोजन ऐसा मिलता था, जिसे शायद कुत्ते भी सूँघकर छोड़ देते। वस्त्र ऐसे, जिन्हें कोई भिखारी भी पैरों से ठुकरा देता, और परिश्रम इतना करना पडता था, जितना बैल भी न कर सके। जेल शासन का विभाग नहीं, पाशविक व्यवसाय है, आदमियों से जबरदस्ती काम लेने का बहाना, अत्याचार का निष्कंटक साधन। दो रुपये, रोज़ का काम लेकर, दो आने का खाना खिलाना ऐसा अन्याय है, जिसकी कहीं नज़ीर नहीं मिल सकती। जिस परिश्रम से एक कुनबे का पालन होता हो, वह अपना पेट भी नहीं भर सकता। इन्साफ़ तो हम तब जानें, जब अपराधी को दंड़ दीजिए, उससे खूब काम लीजिए, लेकिन उनकी मेहनत के पैसे उसके घर पहुँचा दीजिए। अपराधी के साथ उसके घरवालों की प्राण-हत्या न कीजिए। अगर यह कहिए कि अपराधी घरवालों की सलाह से अपराध करता है, तो उसका प्रमाण दीजिए। बहुत से कुकर्म ऐसे होते हैं, जिनकी घरवालों को गन्ध तक नहीं मिलती। ऐसी दशा में घरवालों को क्या दण्ड दिया जाए? फिर नाबालिगों का क्या दोष? वह तो कुकर्म में शरीक़ नहीं होते। उनका क्यों खून करते हो? आदि से अन्त तक सारा व्यापार घृणित जघन्य, पैशाचिक और निंद्य है। अनीति की भी अक्ल यहाँ दंग है, दुष्टता भी यहाँ दाँतों तले उँगली दबाती है।

मगर कुछ ऐसे भी भाग्यवान् हैं, जिनके लिए ये जेल कल्पवृक्ष से कम नहीं। बैल अनाज पैदा करता है, तो अनाज का भूसा खाता है। कभी-कभी खली, चोकर और दाना भी उसके कंठ तले पहुँच जाता है। क़ैदी बैल से भी गया-गुज़रा है। वह नाना प्रकार के शाक-भाजी और फल-फूल पैदा करता है, पर उसकी गन्ध भी उसे नहीं मिलती। नित्य प्रति सब्जी, फल और फूलों से भरी हुई डालियाँ हुक्काम के बँगलों पर पहुँच जाती हैं। क़ैदी देखता है और किस्मत ठोककर रह जाता है।

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