उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
मनोरमा–प्रेम बन्धन न हो; पर धर्म तो बन्धन है। मैं प्रेम के बन्धन से नहीं घबराती, धर्म के बन्धन से घबराती हूँ। आपको मुझ पर बड़ी कठोरता से शासन करना होगा। मैं आपको अपनी कुंजी पहले ही से बताए देती हूँ। मैं आपको धोखा नहीं देना चाहती। मुझे आपसे प्रेम नहीं है। शायद हो भी न सकेगा। )मुस्कुराकर) मैं रानी तो बनना चाहती हूँ, पर किसी राजा की रानी नहीं। हाँ, आपको प्रसन्न रखने की चेष्टा करूँगी। जब आप मुझे भटकते देखें, टोक दें। मुझे ऐसा मालूम होता कि मैं प्रेम करने के लिए नहीं, केवल विलास करने के लिए ही बनाई गई हूँ।
राजा–तुम अपने ऊपर जुल्म कर रही हो, मनोरमा! तुम्हारा वेष तुम्हारी बातों का विरोध कर रहा है। तुम्हारे हृदय में वह प्रकाश है, जिसकी एक ज्योति मेरे समस्त जीवन के अंधकार का नाश कर देगी।
मनोरमा–मैं दोनों हाथों से धन उड़ाऊँगी। आपको बुरा तो न लगेगा? मैं धन की लौंडी बनकर नहीं, उसकी रानी बनकर रहूँगी।
राजा–मनोरमा, राज्य तुम्हारा है, धन तुम्हारा है, मैं तुम्हारा हूँ। सब तुम्हारी इच्छा के दास होंगे।
मनोरमा–मुझे बाते करने की तमीज़ नहीं है। यह तो आप देख ही रहे हैं। लौंगी अम्मा कहती हैं कि तू बातें करती है, तो लाठी-सी मारती है।
राजा–मनोरमा, उषा में अगर संगीत होता, तो वह भी इतना कोमल न होता।
मनोरमा–पिताजी से तो अभी आपकी बातें नहीं हुईं?
राजा–अभी तो नहीं मनोरमा, अवसर पाते ही करूँगा; पर कहीं इनकार कर दिया तो?
मनोरमा–मेरे भाग्य का निर्णय वही कर सकते हैं। मैं उनका अधिकार नहीं छीनूँगी।
दोनों आदमी बरामदे में पहुँचे, तो मुंशीजी और दीवान साहब खड़े थे। मुंशीजी ने राजा साहब से कहा–हुज़ूर को मुबारक देता हूँ।
दीवान–मुंशीजी...।
मुंशी–हुज़ूर, आज जलसा होना चाहिए। )मनोरमा से( महारानी आपका सोहाग सदा सलामत रहे।
दीवान–ज़रा मुझे सोच...
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