उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
|
320 पाठक हैं |
राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
दीवान साहब इस समय बहुत चिन्तित मालूम होते थे। उनकी रक्षा करने के लिए यहाँ लौंगी न थी और बहुत जल्द उनके सामने एक भीषण समस्या आनेवाली थी। दावत की मंशा वह खूब समझ रहे थे। कुछ समझ में न आता था, क्या कहूँगा। लौंगी ने चलते-चलते उनसे समझा के कह दिया था–‘हाँ’ न करना। साफ़-साफ़ कह देना, यह बात नहीं हो सकती। मगर ठाकुर साहब उन वीरों में थे, जिनको पीठ पर पाली में भी हाथ फेरने की ज़रूरत रहती है। बेचारे बिल-सा ढूंढ़ रहे थे कि कहाँ भाग जाऊँ। सहसा मुंशी वज्रधर आ गए। दीवान साहब को आँखें-सी मिल गईं। दौड़े और उन्हें लेकर अलग कमरे में सलाह करने लगे। मनोरमा पहले ही झूले-घर में आकर इधर-उधर टहल रही थी। अब न वह हरियाली थी, न वह रौनक, न वह सफ़ाई। सन्नाटा छाया हुआ था। राजा साहब ने उसे इधर आते देख लिया। वह उससे एकान्त में बातें करना चाहते थे। मौक़ा पाया, तो उसके सामने आकर खड़े हो गए।
मनोरमा ने कहा–रानीजी के सामने इस झूले-घर में कितनी रौनक थी अब जिधर देखती हूँ, सूना-ही-सूना दिखाई देता है।
राजा–अब तुम्हीं से इसकी फिर रौनक होगी, मनोरमा! यह भी मेरे हृदय की तरह तुम्हारी ओर आँखें लगाए बैठा है।
प्रणय के ये शब्द पहली बार मनोरमा के कानों में पड़े। उसका मुखमंडल लज्जा से आरक्त हो गया। वह सहमी-सी खड़ी रही। कुछ बोल न सकी।
राजा साहब फिर बोले–मनोरमा, यद्यपि मेरे तीन रानियाँ हैं, पर मेरा हृदय अब तक अक्षुण्ण है, उस पर आज तक किसी का अधिकार नहीं हुआ। कदाचित् वह अज्ञात रूप से तुम्हारी राह देख रहा था। तुमने मेरी रानियों को देखा है, उनकी बातें भी सुनी हैं। उनमें ऐसी कौन है, जिसकी प्रेमोपासना की जाए? मुझे तो यही आश्चर्य होता है कि इतने दिन उनके साथ कैसे काटे!
मनोरमा ने गम्भीर होकर कहा–मेरे लिए यह सौभाग्य की बात होगी कि आपकी प्रेम पात्री बनूँ, पर...मुझे भय है कि मैं आदर्श पत्नी न बन सकूँगी। कारण तो नहीं बतला सकती, मैं स्वयं नहीं जानती; पर मुझे यह भय अवश्य है। मेरी हार्दिक इच्छा सदैव यही है कि किसी बन्धन में न पड़ूँ। पक्षियों की भाँति स्वाधीन रहना चाहती हूँ।
राजा ने मुस्कराते हुए कहा–मनोरमा, प्रेम तो कोई बन्धन नहीं है।
|