उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
|
320 पाठक हैं |
राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
कहीं भागने का रास्ता नहीं, कोई मददगार नहीं। चारों तरफ़ दीन नेत्रों से देखा, जैसे कोई बकरा भेड़ियों के बीच फँस गया हो। सहसा धन्नासिंह ने आगे बढ़कर दारोग़ाजी की गर्दन पकड़ी और इतनी ज़ोर से दबाया कि उनकी आँखें बाहर निकल आईं। चक्रधर ने देखा, अब अनर्थ हुआ चाहता है, तो तीर की तरह झपटे, क़ैदियों के बीच में घुसकर धन्नासिंह का हाथ पकड़ लिया और बोले–हट जाओ, क्या करते हो?
धन्नासिंह का हाथ ढीला पड़ गया, लेकिन अभी तक उसने गर्दन न छोड़ी।
चक्रधर–छोड़ो ईश्वर के लिए।
धन्नासिंह-जाओ भी, बड़े ईश्वर की पूँछ बने हो। जब वह रोज़ गालियाँ देता है, बात-बात पर हंटर ज़माता है, तब ईश्वर कहाँ सोया रहता है, जो इस घड़ी जाग उठा? हट जाओ सामने से, नहीं तो सारा बाबूपन निकाल दूँगा। पहले इससे पूछो, अब तो किसी को गालियाँ न देगा, मारने को न दौड़ेगा?
दारोग़ा–कसम कुरान की, जो कभी मेरे मुँह से गाली का एक हरफ भी निकले।
धन्नासिंह–कान पकड़ो।
दारोग़ा-कान पकड़ता हूँ।
धन्नासिंह–जाओ बच्चा, भले का मुँह देखकर उठे थे, नहीं तो आज जान न बचती; यहाँ कौन कोई रोनेवाला बैठा हुआ है।
चक्रधर–दारोग़ाजी, कहीं ऐसा न कीजिएगा कि जाकर वहाँ से सिपाहियों को चढ़ा लाइए और इन ग़रीबों को भुनवा डालिए।
दारोग़ा–लाहौल बिला कूबत! इतना कमीना नहीं हूँ।
दारोग़ा चलने लगे, तो धन्नासिंह ने कहा–मियाँ, गारद-सारद बुलायी तो तुम्हारे हक में बुरा होगा, समझाए देते हैं। हमकों क्या, न जीने की खुशी न मरने का रंज; लेकिन तुम्हारे नाम को कोई रोनेवाला न रहेगा।
दारोग़ाजी तो यहाँ से जान बचाकर भागे, लेकिन दफ़्तर में जाते ही गारद के सिपाहियों को ललकारा, हाकिम-जिला टेलीफ़ोन किया और खुद बन्दूक़ लेकर समर के लिए तैयार हुए। दम-के-दम में सिपाहियों का दल संगीनें चढ़ाए आ पहुँचा और लपककर भीतर घुस पड़ा। पीछे-पीछे दारोग़ाजी भी दौड़े। क़ैदी चारों ओर से घिर गए।
|