उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
लौंगी–भला, जब ज़हर खाने लगेंगे, तब देखी जाएगी। इस वक़्त आप जाकर यही कह दीजिए।
मुंशी–दीवान साहब, इस मामले में ज़रा-समझकर फैसला कीजिए।
लौंगी–राजा साहब के दौलत के सिवा और क्या है? दौलत ही तो संसार में सब कुछ नहीं।
मुंशी–सब कुछ न हो, लेकिन इतनी तुच्छ भी नहीं।
लौंगी–शादी-ब्याह के मामले में मैं उसे तुच्छ समझती हूँ।
मुंशी–यह मैं कब कहता हूँ कि दौलत संसार की सब चीज़ों से बढ़कर है! आप लोगों की दुआ से जानता हूँ कि सुख का मूल सन्तोष है। एक आदमी जल और थल के सारे रत्न पाकर ग़रीब रह सकता है, दूसरा फटे वस्त्रों और रूखी रोटियों में भी धनी हो सकता है।
सहसा मनोरमा आकर खड़ी हो गई। यह वाक्य उसके कान में भी पड़ गया। समझी, धन की निन्दा हो रही है। बात काटकर बोली–इसे सन्तोष नहीं, मूर्खता कहना चाहिए।
ठाकुर–अगर सन्तोष मूर्खता है, तो संसार भर के नीति ग्रन्थ, उपनिषदों से लेकर क़ुरान तक मूर्खता के ढेर लग जाएँगे। सन्तोष से अधिक और किसी तप की महिमा नहीं गायी गई है। धन ही पाप, द्वेष और अन्याय का मूल है।
मनोरमा–संसार के धर्मग्रन्थ, उपनिषदों से लेकर क़ुरान तक, उन लोगों के रचे हुए हैं, जो रोटियों के मोहताज़ थे। उन्होंने अंगूर खट्टे समझकर धन की निन्दा की तो कोई आश्चर्य नहीं। अगर कुछ ऐसे आदमी हैं, जो धनी होकर भी निन्दा करते हैं, तो मैं उन्हें धूर्त समझती हूँ, जिन्हें अपने सिद्धान्त पर व्यवहार करने का साहस नहीं।
ठाकुर साहब ने समझाया, मनोरमा ने यह व्यंग्य उन्हीं पर किया है। चिढ़कर बोले–ऐसे लोग भी तो हो गए हैं, जिन्होंने धन ही नहीं, राज-पाट पर भी लात मार दी है।
मनोरमा–ऐसे आदमियों के नाम उँगलियों पर गिने जा सकते है। मेरी समझ में तो धन ही सुख और कल्याण का मूल है। संसार में जितना परोपकार होता है, धनियों ही के हाथों होता है।
ठाकुर–संसार में जितना अत्याचार होता है, वह भी तो धनियों ही के हाथों होता है।
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