उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
ठाकुर–कोई बात बता दो, जो मैंने तुम्हारी इच्छा से न की हो?
लौंगी–कोई बात भी मेरी इच्छा से नहीं होती। एक बात हो, तो बताऊँ। तुम्हीं कोई बात बता दो, जो मेरी इच्छा से हुई हो? तुम करते हो अपने मन की। हाँ, मैं अपना धर्म समझ के भूँक लेती हूँ।
ठाकुर–तुम्हारी इन्हीं बातों पर मेरा मारने को जी चाहता है। तू क्या चाहती है कि मैं अपनी ज़बान कटवा लूँ?
लौंगी–उसकी परीक्षा तो अभी हुई जाती है। तब पूछती हो कि मेरी इच्छा से हो रहा है कि बिना इच्छा के। मैं कहती हूँ, मुझे यह विवाह एक आँख नहीं भाता। मानते हो?
ठाकुर–हाँ मानता हूँ! जाकर मुंशीजी से कहे देता हूँ।
लौंगी–मगर राजा साहब बुरा मान जाएँ, तो?
ठाकुर–कुछ परवाह नहीं।
लौंगी–नौकरी जाती रही तो?
ठाकुर–कुछ परवाह नहीं, ईश्वर का दिया बहुत है, और न भी हो तो क्या? एक बात निश्चय कर ली, तो उसे करके छोड़ेंगे चाहे उसके पीछे प्राण ही क्यों न चले जाएँ।
लौंगी–मेरे सिर के बाल तो न नोचने लगोगे कि तूने ही मुझे चौपट किया? अगर ऐसा करना हो, तो मैं साफ़ कहती हूँ, मंज़ूर कर लो। मुझे बाल नुचवाने का बूता नहीं है।
ठाकुर–क्या मुझे बिल्कुल गया-गुज़रा समझती है? मैं ज़रा झगड़े से बचता रहूँ, तो तूने समझ लिया कि इनमें कुछ दम नहीं है। लत्ते-लत्ते उड़ जाऊँ, पर विशालसिंह से लड़की का विवाह न करूँ? तूने समझा क्या है? लाख गया बीता हूँ तो भी क्षत्रिय हूँ।
दीवान साहब उसी जोश में उठे, आकर मुंशीजी से बोले–आप राजा साहब से जाकर कह दीजिए कि विवाह करना मंजूर नहीं।
लौंगी भी ठाकुर साहब के पीछे-पीछे आयी थी। मुंशीजी ने उसकी तरफ़ तिरस्कार से देखकर कहा–आप इस वक़्त गुस्से में मालूम होते हैं। राजा साहब ने बड़ी मिन्नत करके और बहुत डरते-डरते आपके पास यह सन्देशा भेजा है। आपने मंज़ूर न किया, तो मुझे भय है कि वह ज़हर न खा लें।
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