उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
लौंगी–तो यों कहो कि पूरे डाकू हैं।
मुंशी–डाकू कहो, लुटेरे कहो, सभी कुछ हैं। बात जो थी, मैंने साफ़-साफ़ कह दी। यह चारपाई पर बैठकर पान चबाना भूल जाओगी।
लौंगी–तहसीलदार साहब, तुम तो धमकाते हो, जैसे हम राजा के हाथों बिक गए हों। रानी रुठेंगी, अपना सोहाग लेंगी। अपनी नौकरी ही लेंगे, ले जाएँ, भगवान् का दिया खाने को बहुत है।
मुंशी–अच्छी बात है, मगर याद रखना। खाली नौकरी से हाथ धोकर गला न छूटेगा। राजा लोग जिसे निकालते हैं, कोई-न-कोई दाग़ भी ज़रूर लगा देते हैं। एक झूठा इल्ज़ाम भी लगा देंगे, तो कुछ करते-धरते न बनेगा। यही कह दिया कि इन्होंने सरकारी रकम उड़ा ली है, तो बताओ क्या होगा?
समझ से काम लो। बड़ों से रार मोल लेने में अपना निबाह नहीं है। तुम अपना मुँह बन्द रखो, हम दीवान साहब को राजी़ कर लेंगे। अगर तुमने भाँजी मारी, तो बला तुम्हारे ही सिर आएगी। ठाकुर साहब चाहे इस वक़्त तुम्हारा कहना मान जाएँ, पर जब चरखे में फँसेंगे, तो सारा गुस्सा तुम्हीं पर उतारेंगे। कहेंगे, तुम्हीं ने मुझे चौपट किया। सोचो ज़रा।
लौंगी गहरे सोच में पड़ गई। वह और सब कुछ सह सकती थी, दीवान साहब का क्रोध न सह सकती थी। यह भी जानती थी कि दीवान साहब के दिल में ऐसा ख़याल आना असम्भव नहीं है। मनोरमा के रंग-ढंग से भी उसे मालूम हो गया था कि वह राजा साहब को दुत्कारना नहीं चाहती। जब वे लोग राज़ी हैं, तो मैं क्यों बोलूँ? कहीं कोई आफ़त आई, तो मेरे ही सिर के बाल नोचे जाएँगे। मुंशीजी ने भले चेता दिया, नहीं तो मुझसे बिना बोले कब रहा जाता?
अभी उसने कुछ जवाब न दिया था कि दीवान साहब स्नान करके लौट आए। उन्हें देखते ही लौंगी ने इशारे से ही बुलाया और अपने कमरे में ले जाकर उनके कान में बोली–राजा साहब ने मनोरमा के ब्याह के लिए सन्देश भेजा है।
ठाकुर–तुम्हारी क्या सलाह है?
लौंगी–जो तुम्हारी इच्छा हो, मेरी सलाह क्या पूछते हो!
ठाकुर–यही मेरी बात का जवाब है? मुझे अपनी इच्छा से करना होता, तो पूछता ही क्यों?
लौंगी–मेरी बात मानोगे तो नहीं, पूछने से फ़ायदा?
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