उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
दस बजे घर लौटा, तो देखा सिल्लो आटा गूँध रही है और नैना चौके में बैठी तरकारी पका रही है। पूछने की हिम्मत न पड़ी। पैसे कहाँ से आये? नैना ने आप ही कहा–‘सुनते हो भैया, आज सिल्लो ने हमारी दावत की है। लड़की, घी, आटा, दाल सब बाज़ार से लायी है। बरतन भी किसी अपने जान-पहचान के घर से माँग लायी है।’
सिल्लो बोल उठी–‘ मैं दावत नहीं करती हूँ। मैं अपने पैसे जोड़कर ले लूँगी।’
नैना हँसती हुई बोली–‘यह बड़ी देर से मुझसे लड़ रही है। यह कहती है–मैं पैसे ले लूँगी, मैं कहती हूँ–तू तो दावत कर रही है। बताओ भैया, दावत ही तो कर रही है।’
‘हाँ और क्या! दावत तो है ही।’
अमरकान्त पगली सिल्लो के मन का भाव ताड़ गया। वह समझती है, अगर यह न कहूँगी, तो शायद यह लोग उसके रुपयों की लायी हुई चीज़ लेने से इनकार कर देंगे।
सिल्लो का पोपला मुँह खिल गया। जैसे वह अपनी दृष्टि में कुछ ऊँची हो गयी है, जैसे उसका जीवन सार्थक हो गया है। उसकी रूप-हीनता और शुष्कता मानो माधुर्य में नहा उठीं। उसने हाथ धोकर अमरकान्त के लिए लोटे का पानी रख दिया, तो पाँव ज़मीन पर न पड़ते थे।
अमर को अभी तक आशा थी कि दादा शायद सुखदा और नैना को बुला लेंगे, पर जब अब कोई बुलाने न आया और न वह खुद आये तो उसका मन खट्टा हो गया।
उसने जल्दी से स्नान किया, पर याद आया, धोती तो है ही नहीं। गले की चादर पहन ली, भोजन किया और कुछ कमाने की टोह में निकला।
सुखदा ने मुँह लटकाकर पूछा–‘तुम तो ऐसे निश्चित होकर बैठ रहे, जैसे यहाँ सारा इन्तजाम किए जा रहे हो। यहाँ लाकर बिठाना ही जानते हो। सुबह से गायब हुए तो दोपहर को लौटे। किसी से कुछ काम-धन्धे के लिए कहा, या खुदा छप्पर फाड़कर देगा? यों काम न चलेगा, समझ गये?’
चौबीस घण्टे के अन्दर सुखदा के मनोभावों में यह परिवर्तन देखकर अमर का मन उदास हो गया। कल कितनी बढ़-चढ़कर बातें कर रही थी, आज शायद पछता रही है कि क्यों घर से निकले!
रूखे स्वर में बोला–‘अभी तो किसी से कुछ नहीं कहा। अब जाता हूँ किसी काम की तलाश में।’
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