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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511
आईएसबीएन :978-1-61301-084

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


अमर की नानी मर रही थी। अपने लिए तो उसे चिन्ता न थी। सलीम या डॉक्टर के यहाँ चला जायेगा। यहाँ सुखदा और नैना दोनों-बे-खाट के कैसे सोयेंगी? कल ही कहाँ से धन बरस जायेगा? मगर सुखदा की बात कैसे काटें?

रेणुका ने बच्चे की मुच्छियाँ लेकर कहा–‘भला, देख लेना जब मैं मर जाऊँ। अभी तो मैं जीती ही हूँ। वह घर भी तो तेरा ही है। चल जल्दी कर।’

सुखदा ने दृढ़ता से कहा–‘अम्माँ, जब तक हम अपनी कमाई से अपना निबाह न करने लगेंगे,तब तक तुम्हारे यहाँ न जायेंगे। जायेंगे; पर मेहमान की तरह। घण्टे-दो-घण्टे बैठे और चले आये।’

रेणुका ने अमर से अपील की–‘देखते हो बेटा इसकी बातें। यह मुझे भी गैर समझती है।’

सुखदा ने व्यथित कण्ठ से कहा–‘अम्माँ, बुरा न मानना, आज दादाजी का बरताव देखकर मुझे मालूम हो गया कि धनियों को अपना धन कितना प्यारा होता है। कौन जाने कभी तुम्हारे मन में भी ऐसे भाव पैदा हो। तो ऐसा अवसर आने ही क्यों दिया जाय? जब हम मेहमान की तरह...’

अमर ने बात काटी। रेणुका के कोमल हृदय पर कितना कठोर आघात था।

‘तुम्हारे जाने में तो ऐसा कोई हरज नहीं है सुखदा। तुम्हें बड़ा कष्ट होगा।’

सुखदा ने तीव्र स्वर में कहा–‘तो क्या तुम्हीं कष्ट सह सकते हो? मैं नहीं सह सकती? तुम अगर कष्ट से डरते हो, तो जाओ। मैं तो अभी कहीं नहीं जाने की।’

नतीजा यह हुआ कि रेणुका ने सिल्लो को घर भेजकर अपने बिस्तर मँगवाये। भोजन पक चुका था, इसलिए भोजन भी मँगवा लिया गया। छत पर झाड़ू दी गयी और जैसे धर्मशाला में यात्री ठहरते हैं, उसी तरह इन लोगों ने भोजन करके रात काटी। बीच-बीच में मजाक भी हो जाता था। विपत्ति में जो चारों ओर अन्धकार दीखता है, वह हाल न था। अन्धकार था, पर ऊषाकाल का। विपत्ति थी, पर सिर पर नहीं, पैरों के नीचे।

दूसरे दिन सवेरे रेणुका घर चली गयीं। उन्होंने फिर सबको साथ ले चलने के लिए ज़ोर लगाया पर सुखदा राजी न हुई। कपड़े-लत्ते, बरतन-भाँड़े, खाट-खटोली कोई चीज़ लेने पर राजी न हुई। यहाँ तक कि रेणुका नाराज हो गयीं और अमरकान्त को भी बुरा मालूम हुआ। वह उस अभाव में भी उस पर शासन कर रही थी।

रेणुका के जाने के बाद अमरकान्त सोचने लगा– ‘रुपये-पैसे का प्रबन्ध हो?’ यह समय फ्री पाठशाला का था। वहाँ जाना लाज़मी था। सुखदा अभी सवेरे की नींद में मग्न थी, और नैना चिन्तातुर बैठी सोच रही थी–‘कैसे घर का काम चलेगा?’ उस वक़्त अमर पाठशाला चला गया, पर आज वहाँ उसका जी बिलकुल न लगा। कभी पिता पर क्रोध आता, कभी सुखदा पर, कभी अपने आप पर। उसने निर्वासन के विषय में डॉक्टर साहब से कुछ न कहा। वह किसी की सहानुभूति न चाहता था। आज अपने मित्रों में से वह किसी के पास न गया। उसे भय हुआ, लोग उसका हाल सुनकर दिल में यही समझेंगे, मैं उनसे कुछ मदद चाहता हूँ।

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