उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
‘मैं भी जरा जज साहब की स्त्री के पास जाऊँगी। उनसे किसी काम को कहूँगी। उन दिनों तो मेरा बड़ा आदर करती थीं। अब का हाल नहीं जानती।’
अमर कुछ नहीं बोला–यह मालूम हो गया कि उसकी कठिन परीक्षा के दिन आ गये।
अमरकान्त को बाज़ार के सभी लोग जानते थे। उसने एक खद्दर की दुकान से कमीशन पर बेचने के लिए कई थान खद्दर, खद्दर की साड़ियाँ, जम्फर, कुरते, चादरें आदि ले लीं और उन्हें खुद अपनी पीठ पर लादकर बेचने चला।
दुकानदार ने कहा–‘यह क्या करते हो बाबूजी, एक मजूर ले लो। लोग क्या कहेंगे? भद्दा लगता है।’
अमर के अन्तःकरण में क्रान्ति का तूफान उठ रहा था। उसका बस चलता तो आज धनवानों का अन्त कर देता, जो संसार को नरक बनाये हुए हैं। वह बोझ उठाकर दिखाना चाहता था, मैं मजूरी करके निबाह करना इससे कहीं अच्छा समझता हूँ कि हराम की कमाई खाऊँ। तुम सब मोटी तोंद वाले हरामखोर हो, पक्के हरामखोर हो। तुम मुझे नीच समझते हो! इसलिए कि मैं अपनी पीठ पर बोझ लादे हुए हूँ। क्या यह बोझ तुम्हारी अनीति और अधर्म के बोझ से ज़्यादा लज्जास्पद है, जो तुम अपने सिर पर लादे फिरते हो और शर्माते ज़रा भी नहीं? उलटे और घमण्ड करते हो?
इस वक़्त अगर कोई धनी अमरकान्त को छेड़ देता, तो उसकी शामत ही आ जाती। वह सिर से पाँव तक बारूद बना हुआ था बिजली का जिन्दा तार।
१७
अमरकान्त खादी बेच रहा है। तीन बजे होंगे, लू चल रही है, बगूले उठ रहे हैं। दुकानदार दुकानों पर सो रहे हैं, रईस महलों में सो रहे हैं, मजूर पेड़ों के नीचे सो रहे हैं, और अमर खादी का गद्दा लादे, पसीने में तर, चेहरा सुर्ख, आँखें, लाल, गली-गली घूमता फिरता है।
एक वकील साहब ने खस का पर्दा उठाकर देखा और बोले–‘ अरे यार, यह क्या गजब करते हो, म्युनिसिपल कमिश्नरी की तो लाज रखते, सारा भद्द कर दिया। क्या कोई मजूर नहीं मिलता था?’
अमर ने गट्ठा लिये-लिये कहा–‘मजूरी करने से म्युनिसिपल कमिश्नरी की शान में बट्टा नहीं लगता। बट्टा लगता है–धोखेधड़ी की कमाई खाने से।’
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