उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
‘वहाँ धोखेधड़ी की कमाई खाने वाला कौन है भाई? क्या वकील, डॉक्टर, प्रोफेसर, सेठ-साहूकार धोखेधड़ी की कमाई खाते हैं।’
‘यह उनके दिल से पूछिए। मैं किसी को क्यों बुरा कहूँ।’
‘आख़िर आपने कुछ समझकर ही तो फ़िकरा चुस्त किया।’
‘अगर आप मुझसे पूछना ही चाहते हैं तो मैं कह सकता हूँ, हाँ खाते हैं। एक आदमी दस रुपये में गुज़र करता है, दूसरे को दस हज़ार क्यों चाहिए? यह धाँधली उसी वक़्त तक चलेगी, जब तक जनता की आँखें बन्द हैं। क्षमा कीजिएगा, एक आदमी पंखे की हवा खाये और दूसरा ख़सख़ाने में बैठे, और दूसरा आदमी दोपहर की-धूप में तपे, यह न न्याय है, न धर्म-यह धाँधली है।’
‘छोटे-बड़े तो भाई साहब, हमेशा रहे हैं और हमेशा रहेंगे। सबको आप बराबर नहीं कर सकते!’
‘मैं दुनिया का ठेका नहीं लेता, अगर न्याय अच्छी चीज़ है तो वह इसलिए खराब नहीं हो सकती कि लोग उसका व्यवहार नहीं करते।’
‘इसका आशय यह है कि आप व्यक्तिवाद को नहीं मानते, समष्टिवाद के कायल हैं।’
‘मैं किसी वाद का कायल नहीं। केवल न्यायवाद का पुजारी हूँ।’
‘तो अपने पिताजी से बिलकुल अलग हो गये?’
‘पिताजी ने मेरी ज़िन्दगी का ठेका नहीं लिया।’
‘अच्छा लाइए, देखें आपके पास क्या-क्या चीजें हैं?’
अमरकान्त ने इन महाशय के हाथ दस रुपये के कपड़े बेचे।
अमर आजकल बड़ा क्रोधी, बड़ा कटुभाषी, बड़ा उद्दंण्ड हो गया है। हरदम उसकी तलवार म्यान से बाहर रहती है। बात-बात पर उलझता है। फिर भी उसकी बिक्री अच्छी होती है। रुपया-सवा रुपया रोज मिल जाता है।
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