उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
‘सन्दूक, बिछावन यह सब तो ले चलना ही पड़ेगा?’
‘इस घर में हमारा कुछ नहीं है। मैंने तो सब गहने भी उतार दिए। मजदूरों की स्त्रियाँ गहने पहनकर नहीं बैठा करतीं।’
स्त्री कितनी अभिमानिनी है, यह देखकर अमरकान्त चकित हो गया। बोला–‘लेकिन गहने तो तुम्हारे हैं। उन पर किसी का दावा नहीं है। फिर आधे से ज़्यादा तो तुम अपने साथ लायी थीं।’
‘अम्माँ ने जो कुछ दिया, दहेज़ की पुरौती में दिया। लालाजी ने जो कुछ दिया, वह यह समझकर दिया कि घर ही में तो है। एक-एक चीज़ उनकी बही में दर्ज है। मैं गहनों को भी दया की भिक्षा समझती हूँ। अब तो हमारा उसी चीज़ पर दावा होगा, जो हम अपनी कमाई से बनवायेंगे।’
अमर गहरी चिन्ता में डूब गया। यह तो इस तरह नाता तोड़ रही है कि एक तार भी बाकी न रहे। गहने औरतों को कितने प्रिय होते हैं, यह वह जानता था। पुत्र और पति के बाद अगर उन्हें किसी वस्तु से प्रेम होता है, तो वह गहने हैं। कभी-कभी तो गहनों के लिए वह पुत्र और पति से भी तन बैठती है। अभी घाव ताजा है, कसक नहीं है। दो-चार दिन बाद यह वितृष्णा जलन और असन्तोष के रूप में प्रकट होगी। फिर तो बात-बात पर ताने मिलेंगे बात-बात पर भाग्य का रोना होगा। घर में रहना मुश्किल हो जायेगा।
बोला–‘मैं तो यह सलाह न दूँगा सुखदा। जो चीज़ अपनी है, उसे अपने साथ ले चलने में कोई बुराई नहीं समझता।’
सुखदा ने पति को सगर्व दृष्टि से देखकर कहा–‘तुम समझते होगे, मैं गहनों के लिए कोने में बैठकर रोऊँगी और अपने भाग्य को कोसूँगी। स्त्रियाँ अवसर पड़ने पर कितना त्याग कर सकती हैं, यह तुम नहीं जानते। मैं इस के बाद इन गहनों की ओर ताकना भी पाप समझती हूँ, इन्हें पहनना तो दूसरी बात है। अगर तुम डरते हो कि मैं कल ही से तुम्हारा सिर खाने लगूँगी, तो मैं तुम्हें विश्वास दिलाती हूँ कि अगर गहनो का नाम मेरी ज़बान पर आये, तो ज़बान काट लेना। मैं यह भी कहे देती हूँ कि मैं तुम्हारे भरोसे पर नहीं जा रही हूँ। अपनी गुज़र भर को आप कमा लूँगी। रोटियों में ज़्यादा ख़र्च नहीं होता। ख़र्च होता है आडम्बर में। एक बार अमीरी की शान छोड़ दो, फिर चार आने पैसे में काम चलता है।’
नैना भाभी को गहने उतारकर रखते देख चुकी थी। उसके प्राण निकले जा रहे थे कि अकेली इस घर में कैसे रहेगी? बच्चे के बिना तो वह घड़ी भर भी नहीं रह सकती। उसे पिता, भाई, भावज सभी पर क्रोध आ रहा था। दादा को क्या सूझी? इतना धन तो घर में भरा हुआ है, वह क्या होगा? भैया ही घड़ी भर दुकान पर बैठ जाते, तो क्या बिगड़ा जाता था? भाभी को भी न जाने क्या सनक सवार हो गयी। वह न जाती, तो भैया दो-चार दिन में फिर लौट ही आते। भाभी के साथ वह भी चली जाय, तो दादा को भोजन कौन देगा? किसी और के हाथ का बनाया खाते भी तो नहीं। वह भाभी को समझाना चाहती थी, पर कैसे समझाये? यह दोनों तो उसकी तरफ़ आँखें उठाकर देखते भी नहीं। भैया ने अभी से आँखें फेर लीं।
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