उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
समरकान्त ने समझा, अभी इसका नशा नहीं उतरा। महीना-दो-महीना गृहस्थी के चरखे में पड़ेगा तो आँखें खुल जायेंगी। चुपचाप बाहर चले गये। और अमर उसी वक़्त एक मकान की तलाश करने चला।
उसके चले जाने के बाद लालाजी फिर अन्दर गये। उन्हें आशा थी कि सुखदा उनके घाव पर मरहम रखेगी, पर सुखदा उन्हें अपने द्वार के सामने देखकर भी बाहर न निकली। कोई पिता इतना कठोर हो सकता है, इसकी वह कल्पना भी न कर सकती थी। आख़िर यह लाखों की सम्पत्ति किस काम आयेगी? अमर घर के कामकाज से अलग रहता है, यह सुखदा को खुद बुरा मालूम होता था। लालाजी इसके लिए पुत्र को ताड़ना देते हैं, यह भी उचित ही था, लेकिन घर का और भोजन का खर्च माँगना यह तो नाता ही तोड़ना था। तो जब वह नाता तोड़ते हैं, तो वह रोटियों के लिए उनकी खुशामद न करेगी। घर में आग लग जाए, उससे कोई मतलब नहीं। उसने अपने सारे गहने उतार डाले। आख़िर यह गहने भी तो लालाजी ही ने दिये हैं। माँ की दी हुई चीजें भी उतार फेंकी। माँ ने भी जो कुछ दिया था, दहेज की पुरौती ही में तो दिया था। उसे भी लालाजी ने अपनी बही में टाँक लिया होगा। वह इस घर से केवल एक साड़ी पहनकर जायेगी। भगवान् उसके मुन्ने को कुशल से रखे, उसे किसी की क्या परवाह! यह अमूल्य रत्न तो कोई उससे छीन नहीं सकता।
अमर के प्रति इस समय उसके मन में सच्ची सहानुभूति उत्पन्न हुई। आख़िर म्युनिसिपैलिटी के लिए खड़े होने में क्या बुराई थी? मान और प्रतिष्ठा किसे प्यारी नहीं होती? इसी मेम्बरी के लिए लोग लाखों खर्च करते हैं। क्या वहाँ जितने मेम्बर है, वह सब घर के निखट्टू ही हैं। कुछ नाम करने की, कुछ काम करने की लालसा प्राणी मात्र को होती है। अगर वह स्वार्थ-साधना पर अपना समर्पण नहीं करते, तो कोई ऐसा काम नहीं करते, जिसका यह दण्ड दिया जाय। कोई दूसरा आदमी पुत्र के इस अनुराग पर अपने को धन्य मानता, अपने भाग्य को सराहता।
सहसा अमर ने आकर कहा–‘तुमने आज दादा की बातें सुन लीं? अब क्या सलाह है?’
‘सलाह क्या है, आज ही यहाँ से विदा हो जाना चाहिए। यह फटकार पाने के बाद तो मैं इस घर में पानी पीना हराम समझती हूँ। कोई घर ठीक कर लो।’
‘वह तो ठीक कर आया। छोटा-सा मकान है, साफ़-सुथरा, नीचीबाग में। दस रुपये किराया है।’
‘मैं भी तैयार हूँ।’
‘तो एक ताँगा लाऊँ?’
‘कोई ज़रूरत नहीं। पाँव-पाँव चलेंगे।’
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