उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
लालाजी को यह कथन सारहीन जान पड़ा। उनका पुत्र बनिज-व्यवसाय के काम में कच्चा हो, यह असम्भव था। पोपले मुँह में पान चबाते हुए बोले–‘यह सब तुम्हारी मुटमरदी है और कुछ नहीं। मैं न होता, तो तुम क्या अपने बाल-बच्चों का पालन-पोषण न करते? तुम मुझी को पीसना चाहते हो। एक लड़के वह होते हैं, जो घर सँभालकर बाप को छुट्टी देते हैं। एक तुम हो कि बाप की हड्डियाँ तक नहीं छोड़ना चाहते!’
बात बढ़ने लगी। सुखदा ने मामला गर्म होते देखा, तो चुप हो गयी। नैना ऊँगलियों से दोनों कान बन्द करके घर में जा बैठी। यहाँ दोनों पहलवानों में मल्लयुद्ध होता रहा। युवक में चुस्ती थी, फुरती थी, लचक थी, बूढ़े में पेंच था, दम था, रोब था। पुराना फिकैत बार-बार उसे दबाना चाहता था, पर जवान पट्ठा नीचे से सरक जाता था। कोई हाथ, कोई घात न चलता था।
अन्त में लालाजी ने जामे से बाहर होकर कहा–‘तो बाबा, तुम अपने बाल-बच्चे लेकर अलग हो जाओ, मैं तुम्हारा बोझ नहीं सँभाल सकता। इस घर में रहोगे, तो किराया और घर में कुछ खर्च पड़ेगा, उसका आधा चुपके से निकाल कर रख देना पड़ेगा। मैंने तुम्हारी ज़िन्दगी-भर का ठेका नहीं लिया है। घर को अपना समझो, तो तुम्हारा सब कुछ है। ऐसा नहीं समझते. तो यहाँ तुम्हारा कुछ नहीं है। जब मैं मर जाऊँ, तो जो कुछ हो आकर ले लेना।’
अमरकान्त पर बिजली-सी गिर पड़ी। जब तक बालक न हुआ था और वह घर से फटा-फटा रहता था, तब उसे आघात की शंका दो-एक बार हुई थी, पर बालक के जन्म के बाद से लालाजी के व्यवहार और स्वभाव में वात्सल्य की स्निग्धता आ गयी थी। अमर को अब इस कठोर आघात की बिलकुल शंका न रही थी। लालाजी को जिस खिलौने की अभिलाषा थी, उन्हें वह खिलौना देकर निश्चिंत हो गया था, पर आज उसे मालूम हुआ वह खिलौना माया की जंजीरों को तोड़ न सका।
पिता पुत्र की टालमटोल पर नाराज हो घुड़के-झिड़के मुँह फुलाए, यह तो उसकी समझ में आता था, लेकिन पिता पुत्र से घर का किराया और रोटियों का खर्च माँगे, यह माया लिप्सा की–निर्मम माया-लिप्सा की–पराकाष्ठा थी। इसका एक ही जवाब था कि वह आज ही सुखदा और उसके बालक को लेकर कहीं और जा टिके और फिर पिता से कोई सरोकार न रखे। और अगर सुखदा आपत्ति करे तो उसे भी तिलांजिल दे दे।
उसने स्थिर भाव से कहा–‘अगर आपकी यही इच्छा है तो यही सही।’
लालाजी ने कुछ खिसियाकर पूछा–सास के बल पर कूद रहे होंगे?’
अमर ने तिरस्कार-भरे स्वर में कहा–‘दादा, आप घाव पर नमक न छिड़कें। जिस पिता ने जन्म दिया, जब उसके घर में मेरे लिए स्थान नहीं है, तो आप समझते हैं मैं सास और ससुर की रोटियाँ तोडूँगा? आपकी दया से इतना नीच नहीं हूँ। मैं मजदूरी कर सकता हूँ और पसीने की कमाई खा सकता हूँ। मैं किसी प्राणी से दया की भिक्षा माँगना अपने आत्मसम्मान के लिए घातक समझता हूँ। ईश्वर ने चाहा तो मैं आपको दिखा दूँगा कि मैं मज़दूरी करके भी जनता की सेवा कर सकता हूँ।’
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