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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511
आईएसबीएन :978-1-61301-084

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


डॉक्टर साहब ने मुस्कराकर पूछा–‘तो तुम्हारा यही निश्चय है कि मैं इस्तीफा दे दूँ? वास्तव में मैंने इस्तीफ़ा लिख रखा है और कल दे दूँगा। तुम्हारा सहयोग मैं नहीं खो सकता। मैं अकेला कुछ भी कर सकूँगा तुम्हारे जाने के बाद मैंने ठण्डे दिल से सोचा तो मालूम हुआ, मैं व्यर्थ के मोह में पड़ा हुआ हूँ। स्वामी दयानन्द के पास क्या था जब उन्होंने आर्यसमाज की बुनियाद डाली।’

अमरकान्त भी मुस्कराया–‘नहीं, मैंने ठण्डे दिल से सोचा तो मालूम हुआ कि मैं गलती पर था। जब तक रुपये का कोई माकूल इन्तज़ाम न हो जाये, आपको इस्तीफा देने की ज़रूरत नहीं।’

डॉक्टर साहब ने विस्मय से कहा–‘तुम व्यंग्य कर रहे हो?’

‘नहीं, मैंने आपसे बेअदबी की थी उसे क्षमा कीजिए।

१६

इधर कुछ दिनों से अमरकान्त म्युनिसिपल बोर्ड का मेम्बर हो गया था। लाला समरकान्त का नगर में इतना प्रभाव था और जनता अमरकान्त को इतना चाहती थी कि उसे धेला भी नहीं ख़र्च करना पड़ा और वह चुन लिया गया। उसके मुकाबिले में एक नामी वकील साहब खड़े थे। उन्हें उसके चौथाई वोट भी मिले। सुखदा और लाला समरकान्त दोनों ही ने उसे मना किया। दोनों ही उसे घर के कामों में फँसाना चाहते थे। अब वह पढ़ना छोड़ चुका था और लालाजी उसके माथे सारे भार डालकर खुद अलग हो जाना चाहते थे। इधर-उधर के कामों में पड़कर वह घर का काम क्या कर सकेगा? एक दिन घर में छोटा-मोटा तूफान आ गया। लालाजी और सुखदा एक तरफ़ थे, अमर दूसरी और और नैना मध्यस्थ थी।

लालाजी ने तोंद पर हाथ फेरकर कहा–‘धोबी का कुत्ता, घर का न घाट का। भोर से पाठशाला जाओ, साँझ हो तो कांग्रेस में बैठो, अब यह नया रोग और बेसाहने को तैयार हो। घर में लगा दो आग!’

सुखदा ने समर्थन किया– हाँ, अब तुम्हें घर का काम-धन्धा देखना चाहिए या व्यर्थ के कामों में फँसना। अब तक तो यह था कि पढ़ रहे हैं। अब तो पड़-लिख चुके हो। अब तुम्हें अपना घर सँभालना चाहिए। इस तरह के काम तो वे उठावे, जिनके घर दो-चार आदमी हों। अकेले आदमी को घर से ही फुरसत नहीं मिल सकती। ऊपर के काम कहाँ से करे।’

अमर ने कहा–‘जिसे आप लोग रोग और ऊपर का काम और व्यर्थ का झंझट कह रहे हैं, मैं उसे घर के काम से कम जरूरी नहीं समझता। फिर जब तक आप हैं, मुझे क्या चिन्ता और सच तो यह है कि मैं इस काम के लिए बनाया ही नहीं गया। आदमी उसी काम में सफल होता है, जिसमें उसका जी लगता हो। लेन-देन, बनिज-व्यापार में मेरा जी बिलकुल नहीं लगता। मुझे डर लगता है कि कहीं बना-बनाया काम बिगाड़ न बैठूँ।’

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