उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
सुखदा भी खुश हुई। अमर का शाला के पीछे पागल हो जाना उसे न सोहाता था। डॉक्टर साहब से उसे चिढ़ थी। वही अमर को उँगलियों पर नचा रहे हैं। उन्हीं के फेर में पड़कर अमर घर से फिर उदासीन हो गया।
पर जब संध्या समय अमर ने सकीना से ज़िक्र किया, तो उसने डॉक्टर साहब का पक्ष लिया–‘मैं समझती हूँ, डॉक्टर साहब का ख़याल ठीक है। भूखे पेट ख़ुदा की याद भी नहीं हो सकती। जिसके सिर रोज़ी की फ़िक्र सवार है, वह क़ौम की क्या ख़िदमत करेगा, और करेगा तो अमानत में ख़यानत करेगा। आदमी भूखा नहीं रह सकता। फिर मदरसे का ख़र्च भी तो है। माना कि दरख़्तों के नीचे ही मदरसा लगे; लेकिन वह बाग़ कहाँ है? कोई ऐसी जगह तो चाहिए ही जहाँ लड़के बैठकर पढ़ सकें। लड़कों को किताबें, कागज़ चाहिए, बैठने का फर्श चाहिए।, डोल-रस्सी चाहिए। या तो चन्दे से आये या कोई कमाकर दे। सोचो, तो आदमी अपने वसूल के खिलाफ़ नौकरी करके एक काम की बुनियाद डालता है, वह उसके लिए कितनी क़ुरबानी कर रहा है। तुम अपने वक़्त की क़ुरबानी करते हो। वह अपने ज़मीर तक की क़ुरबानी कर देता है। मैं तो ऐसे आदमी को कहीं ज़्यादा इज़्ज़त के लायक़ समझती हूँ।’
पठानिन ने कहा–‘तुम इस छोकरी की बातों में न आओ बेटा, जाकर घर का धन्धा देखो, जिससे गृहस्थी का निबाह हो। यह सैलानीपन उन लोगों को चाहिए, जो घर के निखट्टू हैं। तुम्हें अल्लाह ने इज़्ज़त दी है। मरतबा दिया है, बाल-बच्चे दिये हैं। तुम इन खुराफ़ातों में न पड़ो।’
अमर को अब टोपियाँ बेचने से फ़ुर्सत मिल गयी थी। बुढ़िया को रेणुका देवी के द्वारा चिकन का काम इतना ज़्यादा मिल जाता था कि टोपियाँ कौन काढ़ता। सलीम के घर से कोई न कोई काम आता ही रहता था। उसके ज़रिए से और घरों से भी काफ़ी काम मिल जाता था। सकीना के घर में कुछ ख़ुशहाली नज़र आती थी। घर की पुताई हो गयी थी, द्वार पर नया परदा पड़ गया था, दो खाटे नयी आ गयी थीं, खाटों पर दरिया भी नई थीं, कई बरतन नये आ गये थे। कपड़े-लत्ते की भी कोई शिकायत न थी। उर्दू का एक अख़बार भी खाट पर खा हुआ था। पठानिन को अपने अच्छे दिनों में भी इससे ज़्यादा समृद्धि न हुई थी। बस उसे अगर कोई ग़म था, तो यह कि सकीना की शादी करने पर राज़ी न होती थी।
अमर यहाँ से चला, तो अपनी भूल पर लज्जित था। सकीना के एक ही वाक्य ने उसके मन की सारी शंका शान्त कर दी थी। डॉक्टर साहब में उसकी श्रद्धा फिर उतनी ही गहरी हो गयी थी। सकीना की बुद्धिमत्ता, विचार-सौष्ठव, सूझ और निर्भीकता ने तो चकित और मुग्ध कर दिया था। सकीना से उसका परिचय जितना ही गहरा होता था, उतना ही उसका असर भी गहरा होता था। सुखदा अपनी प्रतिभा और गरिमा से उस पर शासन करती थी। वह शासन उसे अप्रिय था। सकीना अपनी नम्रता से उस पर शासन करती थी। वह शासन उसे प्रिय था। सुखदा में अधिकार का गर्व था। सकीना में समर्पण की दीनता थी। सुखदा अपने को पति से बुद्धिमान और कुशल समझती थी। सकीना समझती थी, मैं इनके आगे क्या कहूँ?
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