उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
‘इसका अर्थ है कि आप गुड़ खाते हैं, गुलगुले से परहेज करते हैं।’
‘जब तक मुझे रुपये कहीं से मिलने न लगें तुम्हीं सोचों मैं किस आधार पर नौकरी का परित्याग कर दूँ? पाठशाला मैंने खोली है। इसके संचालन का दायित्व मुझ पर है। इसके बन्द हो जाने पर मेरी बदनामी होगी। अगर तुम इसके संचालन का कोई स्थायी प्रबन्ध कर सकते हो, तो मैं आज इस्तीफ़ा दे सकता हूँ; लेकिन बिना किसी आधार के मैं कुछ नहीं कह सकता। मैं इतना पक्का आदर्शवादी हूँ।’
अमरकान्त ने अभी सिद्धान्त से समझौता करना न सीखा था। कार्यक्षेत्र में कुछ दिन रह जाने और संसार के कड़वे अनुभव हो जाने के बाद हमारी प्रकृति में ढीलापन आ जाता है, उस परिस्थिति में वह न पड़ा था। नवदीक्षितों को सिद्धान्त में जो अटल भक्ति होती है, वह उसमें भी थी। डाक्टर साहब में उसे जो श्रद्धा थी, उसे ज़ोर का धक्का लगा। उसे मालूम हुआ कि वह केवल बातों के वीर हैं, कहते कुछ हैं कुछ करते कुछ हैं। जिसका खुले शब्दों में यह आशय है कि यह संसार को धोखा देते हैं। ऐसे मनुष्य के साथ वह कैसे सहयोग कर सकता है?
उसने जैसे धमकी दी–‘तो इस्तीफ़ा नहीं दे सकते?’
‘उस वक़्त तक नहीं, जब तक का कोई प्रबन्ध न हो।’
‘तो ऐसी दशा में मैं यहाँ काम नहीं कर सकता।’
डॉक्टर साहब ने नम्रता से कहा–‘देखो अमरकान्त, मुझे संसार का तुमसे ज़्यादा तज़रबा है, मेरा इतना जीवन नये-नये परीक्षणों में ही गुज़रा है। मैंने जो तत्त्व निकाला है, यह है कि हमारा जीवन समझौते पर टिका हुआ है। अभी तुम मुझे जो चाहे समझो; पर एक समय आयेगा, जब तुम्हारी आँखें खुलेंगी और तुम्हें मालूम होगा कि जीवन में यथार्थ का महत्त्व आदर्श से जौ-भर भी कम नहीं।’
अमर ने जैसे आकाश में उड़ते हुए कहा–‘मैदान में मर जाना छोड़ देने से कहीं अच्छा है और उसी वक़्त वहाँ से चल दिया।’
पहले सलीम से मुठभेड़ हुई। सलीम इस शाला को मदारी का तमाशा कहा करता था, जहाँ जादू की लकड़ी छुआ देने से ही मिट्टी सोना बन जाती है। वह एम.ए. की तैयारी कर रहा था। उसकी अभिलाषा थी कि कोई सरकारी पद पा जाय और चैन से रहे। सुधार और संगठन राष्ट्रीय आन्दोलन से उसे विशेष प्रेम न था। उसने यह ख़बर सुनी तो खुश होकर कहा–‘तुमने बहुत अच्छा किया, निकल आये। मैं डॉक्टर साहब को ख़ूब जानता हूँ, वह उन लोगों में हैं, जो दूसरों के घर में आग लगाकर हाथ सेंकते हैं, क़ौम के नाम पर जान देते हैं, मगर ज़बान से।’
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